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बिहारी-सतसई
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हंसों के) नये होने ही से क्या हुआ? ये हैं मन को मोहित करनेवाले हंस। (अतः बगुले को छोड़ हंस की संगति करो—परिचित अपरिचित का खयाल छोड़ दो।)

अरे हंस या नगर मैं जैयो आपु बिचारि।
कागनि सौं जिन प्रीति करि कोकिल दई बिड़ारि ॥६६०॥

अन्वय—अरे हंस या नगर मैं आपु बिचारि जैयौ, जिन कागनि सौं प्रीति करि कोकिल बिड़ारि दई।

बिड़ारि=खदेड़ देना, भगा देना।

अरे हंस! इस नगर में तू सोच-विचारकर जाना, (क्योंकि इस गाँव में वे ही लोग रहते हैं) जिन्होंने कागों से प्रीति करके कोयल को खदेड़ दिया था।

को कहि सकै बड़ेनु सौं लखैं बड़ी त्यौं भूल।
दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल ॥६६१॥

अन्वय—बड़ी भूल लखैं त्यौं बड़ेनु सौं को कहि सकै, दई गुलाब की इन डारनु वे फूल दीने।

भूल=गलती। दीने=दिया है। दई=दैव, विधाता।

(बड़ों की) बड़ी भी भूल देखकर बड़ों से कौन कह सकता है? विधाता ने गुलाब की इन (कँटीली) डालियों में वे (सुन्दर) फूल दिये हैं (फिर भी उनसे कौन कहने जाता है कि यह आपकी भूल है!)

वे न इहाँ नागर बढ़ी जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गँवई गाँव गुलाब ॥६६२॥

अन्वय—वे इहाँ नागर न जिन तो आब आदर बढ़ी, गुलाब गँवई गाँव फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ।

नागर=नगर के रहनेवाले, चतुर, रसिक। आब=शोभा, रौनक। गँवई गाँव=ठेठ देहात।

यहाँ (देहात में) वे रसिक ही नहीं हैं, जो तेरी शोभा और आदर को