नोट—इस दोहे में बिहारी ने सुखी जीवन का एक चित्र-सा खींच दिया है। भोजन-वस्त्र की सुलभता और बाल-बच्चों के साथ प्राणप्यारी का सहवास—इसके आगे सुखी बनने के लिए और चाहिए ही क्या? किन्तु आजकल के नवयुवक कहेंगे—'स्वाधीनता'। सो 'बिहंग' शब्द से 'स्वाधीनता' का भाव स्पष्ट व्यक्त होता है। 'बिहंग' का अर्थ है 'आकाश में (स्वच्छन्द) विचरण करनेवाला'—अतएव—'स्वतन्त्र'।
स्वारथु सुकृत न स्रमु बृथा देखि बिहंग बिचारि।
बाज पराऐं पानि परि तूँ पच्छीनु न मारि॥६६६॥
अन्वय—स्वारथु सुकृत न स्रमु बृथा बिहंग बिचारि देखि, बाज पराऐं पानि परि तूँ पच्छीनु न मारि।
सुकृत=पुण्यकार्य। स्रमु=श्रम=मिहनत। बिहंग=आकाश में उड़नेवाला, पक्षी। पानि=हाथ।
न तो इसमें तेरा कोई स्वार्थ है (क्योंकि मांस खुद बहेलिया ले लेगा), और न कोई पुण्य-कार्य है (क्योंकि यह हत्यारापन है), इस प्रकार यह परि-श्रम व्यर्थ है, ऐ (उन्मुक्त आकाश में स्वच्छन्द विचरण करनेवाला) पक्षी! विचार कर देख। अरे बाज! दूसरे के हाथ पर बैठकर (दूसरे के बहकावे में आकर) पक्षियों को (स्वजातियों को) मत मार।
दिन दस आदरु पाइकै करि लै आपु बखानु।
जौ लौं काग सराध-पखु तौ लौं तौ सनमानु॥६६७॥
अन्वय—दस दिन आदरु पाइकै आपु बखानु करि लै, काग जौ लौं सराध-पखु तौ लौं तौ सनमानु।
बखानु=बड़ाई। लौं=तक। सराध-पखु=श्राद्ध-पक्ष या श्राद्ध का पखवारा। सनमानु=सम्मान, आदर।
दो-चार-दस दिन (कुछ दिन) आदर पाकर अपनी बड़ाई कर ले। अरे काग! जब तक श्राद्ध का पखवारा है, तभी तक तेरा आदर भी है।
नोट—श्राद्ध में काग को बलि का भाग दिया जाता है।
मरत प्यास पिंजरा पर्यौ सुआ समै कैं फेर।
आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेर॥६६८॥