पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६७
सटीक-बेनीपुरी
 

अन्वय—समै कैं फेर सुआ पिंजरा पर्यौ प्यास मरत, बलि की बेर बाइसु आदरु दै दै बोलियतु।

सुआ=सुग्गा, तोता। बाइसु=कौवा। बलि=श्राद्ध के अन्न में से निकाला हुआ कौवे का भाग। बेर=समय।

समय के फेर से (भाग्य-चक्र के प्रभाव से) सुग्गा पिंजड़े में पड़ा प्यासा मर रहा है, और (श्राद्ध पक्ष होने के कारण) बलि देने के समय काग को आदर के साथ बुला रहे हैं—(कैदबन्द सुग्गे का प्यासों मरना और स्वच्छन्द कौवे का सादर भोजनार्थ बुलाया जाना—सचमुच किस्मत का खेल है!)


जाकैं एकाएकहूँ जग ब्यौसाइ न कोइ।
सो निदाघ फूलै फरै आकु डहडहौ होइ॥६६९॥

अन्वय—जाकैं जग कोइ एकाएकहूँ ब्यौसाइ न सो आकु निदाघ डहडहौ होइ फूलै फरै।

एकाएकहूँ=अकेला भी, एकाकी भी। ब्यौसाइ=उपाय, यत्न। निदाघ=ग्रीष्म ऋतु। आकु=अर्क=अकवन। डहडहौ=लहलहा, हरा-भरा।

जिसके लिए संसार में कोई अकेला मनुष्य मी उपाय करनेवाला नहीं है—जिसे सींचने का कोई उद्योग नहीं किया जाता—वही 'अकवन' ग्रीष्म-ऋतु में भी हरा-भरा रहता है और फूलता- फलता है।

नोट—तुलमी बिरवा बाग को सींचत हू कुम्हिलाय।
राम-भरोसे जो रहै परवत पर हरियाय॥—तुलसीदास
नहि पावसु ऋतुराज यह तजि तरबर चित भूल। अपतु भऐं बिनु पाइहै क्यौं नव दल फल फूल॥६७०॥

अन्वय—पावसु नहि यह ऋतुराज तरबर चित भूल तजि, बिनु अपनु भऐं क्यौं नव दल फल फूल पाइहै।

पावसु=वर्षा-ऋतु। ऋतुराजु=वसन्त ऋतु।

यह पावस नहीं (जिसमें सब वृक्ष स्वभावतः हरे-भरे बने रहते हैं, वसन्त है। हे वृक्ष, मन की इस भूल को छोड़ दो। इस ऋतु में बिना पत्र-रहित हुए