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बिहारी-सतसई
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तुम कैसे नये पत्ते और फल-फूल प्राप्त करोगे? (वसन्त में हरा-भरा होने से पहले—पतझड़ के कारण—पत्ररहित होना ही पड़ेगा।)


सीतलता रु सुबास की घटै न महिमा मूरु।
पीनसवारैं ज्यौं तज्यौ सोरा जानि कपूरु॥६७१॥

अन्वय—पीनसवारैं ज्यौं कपूरु सोरा जानि तज्यौ, सीतलता रु सुबास की महिमा मूरु न घटै।

रु=अरु=और। मूरु=मूल्य, मोल। पीनसवारैं=पीनस-रोग (नकड़ा) का रोगी, जिसकी घ्राणशक्ति नष्ट हो जाती है, और जिसे सुगंध- दुर्गंध कुछ नहीं जान पड़ती। सोरा=नमक के रूप का एक खारा पदार्थ।

पीनस-रोगवाले ने जैसे कपूर को सोरा जानकर छोड़ दिया, उससे उसकी शीतलता और सुगंध की महिमा और न उसका मोल ही घटा। (कोई मूर्ख यदि गुणी का निरादर करे, तो उससे गुणी का गुण नहीं घट जाता और न उसका सम्मान ही कम होता है।)


गहै न नेकौ गुन गरबु हँसौ सकल संसार।
कुच-उचपद लालच रहै गरैं परैहूँ हारु॥६७२॥

अन्वय—गुन गरबु न नेकौ गहै सकल संसार हँसौ, कुच-उचपद लालच हारु गरैं परैहूँ रहै।

गुन गरबु=गुण का घमंड। गर परैहूँ=गले पड़ने पर भी (इस मुहाविरे का अर्थ है=बिना इच्छा के ही किसी के पीछे पड़े रहना')। हार=(१) माला (२) पराजय।

अपने गुण का उसे जरा भी घमंड नहीं, सारा संसार उसे ('हार'-'हार' कहकर) हँसता है, तो भी वह 'हार' कुच-रूपी ऊँचे पद के लोभ में पड़कर (उस नवयौवना के) गले में पड़ा ही रहता है। (उपहास सहकर भी लोग ऊँचे ओहदे को नहीं छोड़ते।)


मूड़ चढ़ाऐंऊ पर्यौ रहै पीठि कच-भारु।
रहै गरैं परि राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥६७३॥