सटीक : बेनीपुरी भरै है री। तोहिं देखि मेरेहू गोविंद मन डोलि उठे मघवा निगोड़ो उतै रोष पकरै है री ॥ बलि बिलि जाहुँ बृषभानु की कुमारी मेरो नैकु कयौ मान तेरो कहा बिगरै है री। चंचल चपल ललचौहैं दृग नूदि राखु जौलौं गिरिधारी गिरि नख पै धरै है री॥ लोपे कोपे इन्द्र लौं रोपे प्रलय अकाल । गिरिधारी राखे सबै गो गोपी गोपाल ।। १४॥ अन्वय-लोपे कोपे इन्द्र लौं अकाल प्रलय रोपे; गिरिधारी गो गोरी गोपाल सबै राखे । लौं-तक । अकाल =असमय । अपनी पूजा के लुप्त होने से क्रुद्ध हुए इन्द्र तक ने असमय में ही प्रलय करना चाहा । (किन्तु ) गिरिधारी श्रीकृष्ण ने (गोवर्द्धन धारण कर ) गो, गोपी और गोपाल-सबकी रक्षा की। नोट-'इन्द्र लौं' का अभिप्राय यह कि इसके पहले अघासुर, बकासुर आदि के उपद्रव भी हो चुके थे। लाज गहौ वेकाज कत घेरि रहे घर जाँहि । गोरसु चाहत फिरत हौ गोरसु चाहत नाहि ।। १५ ॥ अन्वय -जाज गहौ, घर जाँहि, बेकाज कत घेरि रहे; गोरसु चाहत फिरत हो गोरसु नाँहि चाहत । बेकाज = व्यर्थ, बेकार, अकारण । कत = क्यों । गोरस = गो + रस = इन्द्रियों का रस, चुम्बनालिंगन आदि । गोरस = दही-दूध आदि । कुछ लाज मी रक्खो-यों बेशर्म मत बनो। मैं घर जा रही हूँ, व्यर्थ मुझे क्यों घेर रहे हो ? ( अब मैंने समझा कि ) तुम इन्द्रियों का रस चाहते हो, दही-द्ध नहीं। मकराकृति गोपाल के सोहत कुंडल कान । धरयो मनौ हिय-गढ़ समरु ड्योढ़ी लमत निसान ।। १६॥ अन्वय-गोपाल के कान मकराकृति कुंडल सोहत; मनौ समरु हिय-गढ़ धर्यो, ड्योढ़ी निसान नसत । . - .