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सटीक:बेनीपुरी
 

अन्वय—जम-करि-मुँह-तरहरि पर्यौ इहिं धरहरि चित लाउ विषय- तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ।

करि=हाथी। तरहरी=तलहटी, नीचे। हरि=(१) ईश्वर (२) सिंह। तृषा=तृष्णा, वासना। परिहरि=छोड़कर। अजौं=अब भी। नरहरि=नृसिंह भगवान। धरहरि=निश्चय।

यम-रूपी हाथी के मुख के नीचे पड़े हो, यह समझकर निश्चय (सिंह-रूपी) हरि में चित्त लगायो—और, विषय की तृष्णा छोड़कर अब भी उस नृसिंह के गुण गाओ।


जगतु जनायौ जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं॥६७९॥

अन्वय—जिहिं सकलु जगतु जनायौ सो हरि नाहिं जान्यौ, ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखिन देखी जाहिं।

जिहिं=जिसने। ज्यौं=जैसे। न देखी जाहिं=नहीं दीख पड़तीं।

जिसने सारे संसार को जनाया—जिसने तुम्हें सारे संसार का ज्ञान दिया, उसी ईश्वर को तुमने नहीं जाना—नहीं पहचाना, (ठीक उसी प्रकार) जिस प्रकार अपनी आँखों से और सब वस्तुएँ तो देखी जाती हैं, पर स्वयं (अपनी ही) आँखें नहीं दीख पड़तीं।


जप माला छापैं तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा साँचै राँचै रामु॥६८०॥

अन्वय—जप माला छापैं तिलक एकौ कामु न सरै, मन काँचै नाचै बृथा रामु साँचै राँचै।

छापें=राम-नाम की छाप, जिसे साधु-सन्त अपने शरीर और वस्त्र में लगाते हैं। सरै=सघता है। कामु=कार्य, मनस्कामना। साँचै=सचाई (सच्ची लगन) से ही। राँचै=रीझते हैं।

जप (मंत्र-पाठ), माला (सुमिरन), छापे या तिलक से एक भी काम नहीं सध सकता—कोई भी मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता। जब मन सच्चा