गोपाल (की लीला) गुड्डी के समान है। गुण-विस्तार करने के समय—अपनेको गुणवान् समझने के समय—वह प्रभु पीठ देकर दूर भागता है, (ठीक उसी तरह, जिस तरह 'गुण'—तागा—बढ़ाने पर गुड्डी दूर भागती है), और निर्गुण होते ही—अपनेको तुच्छातितुच्छ समझते ही—वह (ईश्वर) निकट ही प्रकट हो जाता है (जिस तरह गुण-हीन—तागा बिना—हो जाने पर गुड्डी निकट आ जाती है)।
जात-जात बितु होतु है ज्यैं जिय मैं सन्तोष।
होत-होत जौं होइ तौ होइ घरी मैं मोष॥६८९॥
अन्वय—बितु जात-जात ज्यौं जिय मैं संतोष होतु है, होत-होत जौं होइ तौ घरी मैं मोष होइ।
जात-जात=जाते-जाते, जाते समय। बित=घन। मोष=मोक्ष।
धन के जाते समय जिस प्रकार मन में सन्तोष होता है, अगर (धन) के आते समय भी उसी प्रकार (सन्तोष) हो, तो एक घड़ी में ही (अथवा, घर ही में) मोक्ष मिल जाय।
ब्रजवासिनु को उचितु धनु जो धन रुचत न कोइ।
सुचितु न आयौ सुचितइ कहाँ कहाँ तैं होइ॥६९०॥
अन्वय—जो कोइ धन न रुचत ब्रजवासिनु को उचितु धनु, सुचितु न आयौ कहौ कहाँ तैं सुचितह होइ?
सुचितइ=निश्चिन्तता, शान्ति।
जो और कोई धन तुम्हें नहीं रुचता है (वहाँ तक तो ठीक है मगर) ब्रजवासियों का उपयुक्त धन (श्रीकृष्ण) अगर हृदय में नहीं आया, तो कहो, शान्ति किस प्रकार हो सकती है?
नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि॥६९१॥
अन्वय—नीकी अनाकनी दई, गुहारि फीकी परी, मनौ बारक बारनु तारि तारन-बिरदु तज्यौ।