श्रेष्ठ ब्राह्मण वंश में ('कृष्ण' अर्थ में 'चन्द्रवंश' में) प्रकट हुए, और अपनी इच्छा से ब्रज में आ बसे। वह कृष्ण-रूपी (मेरे पिता) केशवराय मेरे सब क्लेशों को दूर करें।
घर-घर डोलत दीन ह्वै जन-जन जाँचतु जाइ।
दियैं लोभ-चसमा चखनु लघुहू बड़ौ लखाइ॥६९८॥
अन्वय—दीन ह्वै घर-घर डोलत, जन-जन जाँचतु जाइ, चखनु लोभ-चसमा दियैं लघुहू बड़ौ लखाइ।
डोलत=घूमता-फिरता है। चखनु=आँखों पर। चसमा=ऐनक।
(यह लालची मन) दीन बनकर घर-घर घूमता (मारा फिरता) है, और प्रत्येक मनुष्य से याचना करता जाता है—कुछ-न-कुछ माँगता ही जाता है; क्योंकि आँखों पर लोभ का चश्मा देने से छोटी (मामूली) चीज भी बड़ी (बेशकीमत) दीख पड़ती है।
कीजै चित सोई तरे जिहिं पतितनु के साथ।
मेरे गुन-औगुन-गननु गनौ न गोपीनाथ॥६९९॥
अन्वय—गोपीनाथ, सोई चित कीज जिहिं पतितनु के साथ तरे, मेरे गुन-औगुन-गननु न गनौ।
जिहिं=जिससे। गननु=गणों, समूहों। गनौ न=खयाल न करो।
हे गोपीनाथ! वैसा ही (कृपालु) मन रखिए—इरादा कीजिए, जिससे मैं भी (अन्य) पतितों के साथ तर जाऊँ; मेरे गुण और अवगुण के समूहों को न गिनिए, (क्योंकि पार न पाइएगा, अतः दया कर तार ही दीजिए)।
ज्यौं अनेक अधमनु दियौ मोहूँ दीजै मोषु।
तौ बाँधौ अपनैं गुननु जौ बाँधही तोषु॥७००॥
अन्वय—ज्यौं अनेक अधमनु दियौ, मोहूँ मोषु दीजै, जो बाँधैही तोषु तौ अपनैं गुनन बाँधौ।
मोषु=मोक्ष। गुननु=(१) गुणों (२) रस्सियों। तोषु=संतोष।
जिस प्रकार आपने अनेक पतितों को मोक्ष दिया है, उसी प्रकार मुझे भी