पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८५
सटीक : बेनीपुरी
 

(खामखाह किसी की खिदमत में रहना), ऐ मुक्ता-हार! तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है!

(सो॰) पावस कठिन जु पीर, अबला क्यौंकरि सहि सकैं।
तेऊ धरत न धीर, रक्त-बीज सम ऊपजै ॥७१८॥

अन्वय—पावस कठिन जु पीर अबला क्यौंकरि सहि सकैं रक्त-बीज सम ऊपजै तेऊ धीर न धरत।

रक्त-बीज='रक्त' और 'बीज' के समान भाग से अवतार (जन्म) लेने-वाला—अर्थात् 'नपुंसक'। ऊपजे=जन्म ग्रहण किया।

वर्षा ऋतु की जो कठिन पीड़ा है, इसे अबला स्त्रियाँ किस प्रकार सह सकती हैं? जब कि जन्म ही के नपुंसक (पैदाइशी हिजड़े) भी इस ऋतु में धैर्य नहीं धरते।


प्यासे दुपहर जेठ के फिरै सबै जलु सोधि।
मरुधर पाइ मतीर हीं मारू कहत पयोधि ॥७१९॥

अन्वय—जेठ के दुपहर प्यासे सबै जलु सोधि फिरै मारू मरुधर मतीर ही पाइ पयोधि कहत।

सोधि=ढूँढ़कर। मरुधर=मरुभूमि, मारवाड़। मतीर=तरबूजा। मारू=मरुभूमि निवासी। पयोधि=समुद्र।

जेठ की दुपहरिया का प्यासा और सर्वत्र जल ढूँढ़-ढूँढ़कर थका हुआ मरुभूमि-निवासी, मरुभूमि में तरबूजे को पाकर, उसे समुद्र कहता है। (देखिए ६७७ वाँ दोहा)

समै-समै सुन्दर सबै रूपु-कुरूप न कोइ।
मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ ॥७२०॥

अन्वय—समै-समै सबै सुन्दर, कोइ रूप-कुरूपु न, मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ।

रुचि=प्रवृत्ति, आसक्ति। जेती=जितनी। जितै=जिधर। तित तेती=उधर उतनी ही।