स्त्री (नायिका) तिथि है और किशोरावस्था ( लड़कान और जवानी का संधिकाल ) सूर्य है । ये दोनों पुण्य-काल में इकट्ठे हुए हैं । वयःसन्धि (लड़कपन की अन्तिम और जवानी की प्रारंभिक अवस्था ) रूपी संक्रान्ति (पवित्र पर्व ) किसी (संचित ) पुण्य ही से प्राप्त होती है ।
नोट- कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है-
सूरज रासि तजै जब लौं नहिं दूसरि रासि दबावतु है ।
लौं वह अन्तर को समयो अति उत्तम बेद बतावतु है ।।
इतहू जब बैस किसोर-दिनेस दुहू वय अन्तर आवतु है ।
सुकृती कोउ पूरब पुन्यन ते बिबि संक्रम को छनु पावतु है ।।
अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाति ।
आज काल्हि मैं देखियत उर उकसौंही भाँति ॥ २६ ॥
अन्वय- लाल, अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाति, आज कालिह मैं उर उकसौं ही माँति देखियत ।
सिहाति = ललचाती है । उकसौंही-भाँति = उभरी हुई-सी, उठी-सी, अंकुरित-सी।
ऐ लाल ! इसका विचित्र लड़कान देख-देखकर सखियाँ ललचती हैं । आज-कल में ही ( इसकी ) छाती ( कुछ ) उभरी-सी दीख पड़ने लगी है ।
भावकु उभरौंहौं भयो कछुक परयौ भरुआइ ।
सीपहरा के मिस हियौ निसि-दिन देखत जाय ।। २७ ॥
अन्वय- भावकु उभरौंहौं, भयो, कछुक मरुभाइ परयौ; सीपहरा के मिस हियौ हेरत निसि-दिन जाय ।
भावकु ( भाव+एकु )= कुछ-कुछ। उभरौंहों = विकसित, उभरे हुए । भरु = भार, बोझ । सीपहरा = सीप से निकले मोतियों की माला । मिस = बहाना । हियो-हृदय, छाती ।
( उसकी छाती ) कुछ-कुछ उभरी-सी हो गई है ( क्योंकि उसपर अब) कुछ बोझ भी आ पडा है । ( इसलिए) मोती की माला के बहाने अपनी छाती देखते रहने में ही ( उसके) दिन-रात बीतते हैं ।