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बिहारी-सतसई
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ऐ सखी! चतुर शिकारी कामदेव ने कानों तक आने-जानेवाले (वन में विहार करनेवाले) तुम्हारे नेत्र-रूपी हिरनों को चतुर नागरिक पुरुषों का शिकार करना भली भाँति सिखलाया है।

नोट—हिरनों से आदमियों का शिकार कराना--वह भी ठेठ देहाती गँवार आदमियों का नहीं, छैल-चिकनिये चतुर नागरिकों का!--कवि की अनूठी रसिकता प्रदर्शित करता है।

अर तैं टरत न बर परे दई मरक मनु मैन।
होड़ा-होड़ी बढ़ि चले चितु चतुराई नैन॥५२॥

अन्वय—चितु, चतुराई, नैन, होड़ा-होड़ी बढ़ि चले न अर तैं करते, वर परे मनु मैन मरक दई।

अर तैं=हठ से। टरत=टरते हैं, डिगते हैं। बर परे=बल पकड़ता है। दई= दिया हो। मरक=बढ़ावा। मैन=कामदेव। होड़ा-होड़ी=बाजी लगाकर, शर्त बदकर, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतिस्पर्धा।

(नायिका के) चित्त की चतुराई और उसकी आँखें बाजी लगाकर बढ़ चली हैं—जिस प्रकार आँखें बड़ी-बड़ी होती जा रही हैं उसी प्रकार उसकी चतुराई भी बढ़ी चली जाती है। वे (चतुराई और आँखें) अपने हठ से नहीं डिगतीं, वरन् (वह हठ) और भी बल पकड़ता जाता है, मानो कामदेव ने उन्हें (इस प्रतिद्वन्द्विता के लिए) बढ़ावा दे दिया हो, ललकार दिया हो।

सायक सम मायक नयन रँगे त्रिबिध रँग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जलजात लजात॥५३॥

अन्वय—सायक सम मायक-नयन, त्रिबिध रँग गात रँगे, लखि झखौ बिलखि जल दुरि जात, जलजात लजात।

सायक=सायंकाल। मायक=माया जाननेवाला, जादूगर। त्रिबिध=तीन प्रकार। गात=शरीर। झखौ=मछली भी। विलखि=संकुचित या दुखी होकर। जलजात =कमल।

संध्याकाल के समान मायावी आँखें अपनी देहों को तीन रंगों में रँगे हुई