संगति दोषु लगै सबनु कहे ति साँचे बैन।
कुटिल बंक भ्रुव संग भए कुटिल बंक गति नैन॥५६॥
अन्वय—संगति-दोषु सबनु लगै ति बैन साँचे कहे, कुटिल बंक भ्रुव-संग ते नैन कुटिल बंक गति भये।
भ्रुव=भँवें, भौंहें। कुटिल गति=टेढ़ी चालवाली। ति=सचमुच।
संगति का दोष सबको लगता है, सचमुच यह बात सच्ची कही गई है। तिरछी टेढ़ी भँवों की संगति से आँखे भी टेढ़ी और तिरछी चालवाली हो गई!
दृगनु लगत बेधत हियहिं बिकल करत अँग आन।
ए तेरे सब तैं विषम ईछन तीछन बान॥५७॥
अन्वय—लगत दृगनु, बेधत हियहिं, बिकल करत आन अँग ए तेरे ईछन-तीछन बान सब तैं विषम।
आन=दूसरा। विषम=भयंकर, कठोर। ईछम=ईक्षण=नेत्र। तीछन=तीक्ष्ण=तेज, चोखे, कँटीले।
लगते हैं आँखों में, बेधत हैं हृदय को और व्याकुल करते हैं अन्य अंगों को—सारे शरीर को! ये तुम्हारे नेत्र-रूपी तीख-चोखे बाण सबसे भयंकर हैं।
झूठे जानि न संग्रहे मन मुँह निकसे बैन।
याही तैं मानहु किये बातनु कौं बिधि सैन॥५८॥
अन्वय—मुँह निकसे बैन झूठे जानि मन संग्रहे न, मानहु याही तैं बातनु कौं बिधि सैन किये।
सैन=इशारा। बैन=वचन। संग्रहै=संचय करता है। याही तैं=इसी लिए। बिधि = ब्रह्मा।
मुँह से निकले हुए वचनों को झूठा समझकर मन संग्रह नहीं करता--- प्रमाण नहीं मानता। मानो इसी कारण (हृदय की) बातें करने के लिए ब्रह्मा ने नेत्रों के इशारे बनाये।
फिरि फिरि दौरत देखियत निचले नैंकु रहैं न।
ए कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन॥५९॥