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सटीक : बेनीपुरी
 

कमलनयनी (नायिका) स्नान कर बैठी हुई अपने बालों को सुलझा रही है और बालों तथा अँगुलियों के बीच से कृष्णजी को देखती भी है। (लोग जानते हैं कि वह बाल सँवार रही है, इधर बालों और उँगलियों के बीच इशारे चल रहे हैं!)

डीठि-बरत बाँधी अटनु चढ़ि धावत न डरात।
इतहिं-उतहिं चित दुहुन के नट-लौं आवत-जात॥६५॥

अन्वय—अटनु बाँधी डीठि-बरन चढ़ि धावत न डरात, दुहुन के चित नट लौं इतहिं उतहिं आवत जात।

डीठि=नजर। बरत=रस्सी। अटनि=कोठे। लौं=समान।

कोठों पर बँधी दृष्टि-रूपी रस्सी पर चढ़कर दौड़ते हैं, (जरा भी) डरते नहीं। दोनों के चित्त नट के समान इधर-से-उधर (बेधड़क) आते-जाते हैं।

नोट—प्रमिक और प्रमिका अपनी अपनी अटारी पर खड़े आँखें लड़ा रहे हैं। कवि ने उसी समय की उनके चित्त की दशा का वर्णन किया है।

जुरे दुहुन के दृग झमकि रुके न झीनैं चीर।
हलुकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर भीर॥६६॥

अन्वय—दुहुन के दृग झमकि जुरे, झीनैं चीर न रुके, ज्यौं हरौल हलुकी फौज, गोल पर भीर परें।

झीने=महीन, बारीक। चीर=साड़ी। हरौल=हरावल, सेना का अग्रभाग। गोल=सेना का मुख्य भाग। झमकि=उछलकर या नाचकर। भीर=चोट, हमला।

दोनों की आँखें ललक के साथ बढ़कर जुट गई, बारीक साड़ी (के घूँघट) में वे न रुकी, जिस प्रकार सेना के अग्रभाग में हलकी फौज रहने से मुख्य भाग पर ही भीड़ आ पड़ती है।

लीनैं हूँ साहस सहसु कीनैं जतनु हजारु।
लोइन लोइन-सिंधु तन पैरि न पावत पारु॥६७॥

अन्वय—हजार जतनु कीनैं सहसु साहस लीनैं हूँ, लोइन तन-लोइन-सिंधु पैरि पार न पावत।