३७ सटीक : बेनीपुरी विजग नहीं देख पड़ती; क्योंकि उसका रंग और उसकी सुगन्ध तथा कोमलता गाल के रंग, सुगन्ध और कोमलता में एकदम मिल-सी गई है। लसत सेत सारी ढप्यौ तरल तयौना कान । पन्चौ मनौ मुरसरि-सलिल रबि प्रतिविम्बु बिहान ।। ९२ ।। अन्वय-सेत सारी ढप्यो कान तरल तस्यौना लसत, मनौ सुरमरि-सलिल बिहान-रवि-प्रतिबिम्वु परयौ । तरल-चंचल । बिहान =प्रातःकाला अजली साड़ी से ढंका हुआ उसके कान का चंचल कणफूल ऐसा सोह रहा है, मानो गंगा के उज्ज्वल जल में प्रातःकाल के सूर्य का (सुनहला) प्रतिबिम्ब श्रा पड़ा हो। नोट- यहाँ सोने का कर्णफूल प्रातःकाल का सूर्य है, और साड़ी गंगा का स्फटिक-सा स्वच्छ जल। सुदृति दुराई दुरति नहिं प्रगट करति रति-रूप । छुट पीक औरै उठी लाली अोठ अनूप ।। ९३ ।। अन्वय-सुदुति दुराई नहिं दुरति, रति-रूप प्रगट करति, पीक छुटै अोठ अनूप लाली औरै उठी। मुदुति =सुद्युति=मुन्दर कान्ति । ति-रूप = रति का रूप, कामदेव की स्त्री 'ति' अत्यन्त मुन्दर कही जाती है; अतएव यहाँ 'रति-रूप' से अर्थ है सौन्दर्य का अत्यन्त आधिक्य । दुराई =छिपाये । मुन्दर कान्ति छिपाने से नहीं छिपती, वरन् (ऐसी चेष्टा करने पर) वह और भी अपरूप सौदयं प्रकट करती है । पान की पीक (या लाली) छुड़ाये जाने पर ओठों की अनुपम लाली और भी बढ़ गई है। नोट-नायिका अपने ओठ की ललाई को पान की लाली समझकर चार-बार उसे छुड़ा रही है, किन्तु ज्यों-ज्यों पान की लाली छुटती है, त्यों-त्यों उसके अोठ की स्वाभाविक लाली और भी खिलती जाती है । कुच-गिरि चढ़ि अति थकित है चली डॉठि मुँह चाड़। फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक को गाड़ ॥ ९४ ॥