पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/६०

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= चाह । ५ बिहारी-सतसई ३८ अन्वय-कुच-गिरि चढ़ि, अति थकित है, डीठि मुँह चाड़ चली, चिबुक की गाड़ परी परियै रही, फिरि टरी न । कुच =स्तन । डीठि-दृष्टि =नजर । परियै रही = पड़ी रही । चिबुक = ठुड्डी । गाड़गढ़ा । स्तन-रूपी (ऊँचे) पर्वत पर चढ़, अत्यन्त थककर, दृष्टि-मुख (देखने) की चाह में (आगे) चली। (किन्तु रास्ते में ही) ठड्डी के गढ़े में वह (इस प्रकार) जा गिरी कि (उसी में) पड़ी रह गई, ( वहाँ से ) पुनः (इधर-उधर) टली नहीं। नोट-'चिबुक की गाड़' पर एक संस्कृत कवि की उक्ति का आशय है कि ब्रह्मा ने सुन्दरी स्त्री को जब पहले-पहल बनाया, तब उसके रूप पर आप ही इतने मुग्ध हुए कि ठुड्डी पकड़कर भर-नजर देखने लग गये । उसी समय कच्ची मूर्ति की ठुड्डी उनके अंगूठे से दब गई । वही गढ़ा हो गया ! ललित स्याम-लीला ललन चढ़ी चिबुक छबि दून । मधु छाक्यो मधुकर पस्यौ मनौ गुलाब-प्रसून ॥ ९५ ।। अन्वय-ललित स्याम-लीला, ललन, चिबुक-छबि दून चढ़ी, मानौ मधु छाक्यौ मधुकर गुलाब-प्रसून पस्यौ । ललित= सुन्दर | स्याम-लीला-गोदने की बिन्दी। दून- दूना । मधु छाक्यौ= = रस पीकर तृप्त । मधुकर = भौंरा । प्रसून = फूल । सुन्दर गोदने की (कोली) बिन्दी से, हे ललन ! उसकी (गुलाबी) ठुड्डी की शोभा दूनी बढ़ गई है, (जान पड़ता है) मानो मधु पीकर मस्त मौरा गुलाब फून पर (बेसुध ) लेटा हुआ है। नोट-'पद्माकर' के इसी भाव के एक कवित्त का पद है-'कैघों अरबिन्द में मलिन्दसुत सोयो आय, गरक गोविन्त कंधों गोरी की गुराई में ।' अपने 'तिल-शतक' में मुबारक कवि तिल को यो प्रणाम करते हैं- गोरे मुख पर तिल सै, ताको करौं प्रणाम । बिछाय के पौढ़े सालीग्राम ॥ डारे ठोढ़ी-गाड़ गहि नैन-बटोही मारि । तिलक-चौंधि मैं रूप-ठग हाँसी-फाँसी डारि ॥ ९६ ।। 9 मानहु चंद