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सटीक : बेनीपुरी
 

मानहु बिधि तन-अच्छ-छबि स्वच्छ राखिबैं काज।
दृग-पग पोंछन को करे भूषन पायन्दाज ॥११७॥

अन्वय--मानहु बिधि तन-अच्छ-छबि स्वच्छ राखिबैं काज-दृग-पग-पोंछन को भूषन पायन्दाज करे।

अच्छ = अच्छी। दृग-पग = नजर के पैर। पायन्दाज = बँगले के दरवाजे पर रक्खा हुआ पैर पोंछने का टाट, पायपोश।

मानो ब्रह्मा ने (नायिका के) शरीर की सुन्दर कान्ति को स्वच्छ रखने के निमित्त दृष्टि के पैर पोंछने के लिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाये हैं--(ताकि देखनेवालों की नजर के पैरों की धूल से कहीं अंग की कान्ति न मलिन हो जाय। इसलिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाया कि अंग पर पड़ने से पहले नजरें अपने पैरों की धूल साफ कर लें!)

नोट---एक सुरसिक ने इसका उर्दू अनुवाद यों किया है---

निगाहों के कदम मैली न कर दें चाँदनी तन की।
ये जेवर तूने पहने हैगे पायन्दाज की सूरत॥

सोनजुही-सी जगमगति अँग अँग-जोबन-जोति।
सुरँग कसूँभी चूनरी दुरँग देह-दुति होति ॥११८॥

अन्वय--सोनजुही-सी अँग-अँग जोबन-जोति जगमगति कसूँभी सुरंग चूनरी देह-दुति दुरँग होति।

सोनजुही = पीली चमेली। जोबन = जवानी। सुरंग = लाल। कसूँभी = कुसुम रंग की, लाल। देह-दुति = शरीर की कान्ति।

सोनजुही के समान उसके अंग-अंग में जवानी की ज्योति जगमगा रही है। (उसपर) कुसुम में रँगी हुई लाल साड़ी (पहनने पर) शरीर की कान्ति दुरंगी हो जाती है--लाज और पीले के संयोग से अजीब दुरंगा (नारंगी) रंग उत्पन्न होता है।

छिप्यो छबीलौ मुँह लसै नील अंचर-चीर।
मनौ कलानिधि झलमलै कालिन्दी कैं नीर ॥११९॥