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सटीक : बेनीपुरी
 

गोरी कनिष्टा अँगुली, (उसका) लाल नख, और (उसमें पहनी गई नीलम जड़ी) साँवली अँगूठी--ये तीनों शोभा दे रहे हैं! नेत्र, इस त्रिवेणी (गोरी गंगा, लाल सरस्वती और श्यामला यमुना के संगम)--का सेवन करके, एक क्षण में ही, प्रीति रूपी मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।

तरिवन कनकु कपोल दुति बिच-बीच ही बिकान।
लाल लाल चमकति चुनी चौका चीन्ह समान ॥१२६॥

अन्वय--कनकु तरिवन कपोल-दुति बिच-बीच ही बिकान, लाल-लाल चुनी चौका चीन्ह समान चमकति।

तरिवन=तरौना, तरकी, कर्णभूषण विशेष। कपोल=गाल। चुनी=चुन्नी, मणि के टुकड़े। चौका=अगले चारों दाँत।

सोने की तरकी गालों की कान्ति के बीच ही में बिक गई--लीन हो गई देव नहीं पड़ती (हाँ, उस तरकी में जड़ी हुई) लाल-लाल चुन्नियाँ अगले चारों दाँतों के चिह्न के (साथ-साथ) समान भाव से चमक रही हैं।

सारी डारी नील की ओट अचूक चुकै न।
मो मन-मृग करबर गहै अहे अहेरी नैन ॥१२७॥

अन्वय--नील सारी की डारी ओट अचूक न चुकै, अहे नैन-अहरी मो मन-मृग करबर गहै।

डारी=(डाली) डाल आदि की बनी हुई हरी टट्टी, जिसकी ओट से शिकारी शिकार करते हैं। कर-बर=(कर-बल) हाथ से हो। अहे=अरी। अहेरी=शिकारी।

नीली साड़ी की टट्टी की ओट से अचूक निशान चलाते हैं, कभी चूकते नहीं। अरी! (तुम्हारे) नेत्र-रूपी शिकारी ने मेरे मनरूपी मृग को हाथ ही में पकड़ लिया।

तन भूषन अंजन गनु दृगनु महावर रंग।
नहिं सोभा कौं साजियतु कहिबैं ही कौं अंग ॥१२८॥

अन्वय--तन भूषन, दृगनु अंजन, पगनु महावर-रंग, कहिबैं ही कौं अंग-सोभा कौं साजियतु नहिं।