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सटीक:बेनीपुरी
 

हौं रीझी लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।
सोनजुही-सी होति दुति मिलत मालती-माल ॥१३६॥

अन्वय--छबीले लाल, हौं रीझी, छबिहिं लखि रीझिहौ। मालती-माल मिलत सोनजुही-सी दुति होति।

रीझिहौ=मोहित (मुग्ध) हो जाओगे। सोनजुही=पीली चमेली।

है छबीले लाल--रसिया श्रीकृष्ण! मैं देखकर मोह गई हूँ, तुम भी (उसकी) शोभा देख मोह जाओगे। (कैसी स्वाभाविक कान्ति है!) मालती की (उजली) माला (उसके गोरे शरीर से) मिलकर सोनजुही के समान (पीली) द्युति की हो जाती है।

नोट--तुलसीदास का एक बरवै भी कुछ इसी तरह का है--

सिय तुअ अंग रंग मिलि अधिक उदोत।
हार बेलि पहिरावों चंपक होत॥

झीने पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार।
सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार ॥१३७॥

अन्वय--झीन पट मैं झुलमुली अपार ओप झलकति। मनु सिन्धु मैं सुरतरु की सपल्लव डार लसति।

झीने=महीन, बारीक। पट=वस्त्र। झुलमुली=कान में पहनने का कनपत्ता नामक गहना, चकाचौंध करती हुई। ओप=कान्ति। सुरतरु=कल्पवृक्ष। लसत=शोभता है। डार=शाखा।

महीन कपड़े में (चकाचौंध करती हुई) कनपत्ते की अपार कान्ति झलमला रही है। (वह ऐसा मालूम होता है) मानो कल्पवृक्ष की पल्लव-युक्त शाखा शोभा पा रही हो।

फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु टुटी लाज की लाव।
अंग अंग छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव ॥१३८॥

अन्वय--फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु लाज की लाव टुटी अंग अंग छबि-झौंर मैं भौंर की नाव भयौ।

लाव=लंगर की रस्सी। झौंर=समूह।