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सटीक:बेनीपुरी
 

है। (फलतः) अंग में लगी हुई केसर अपनी सुगंध से ही पहिचानी जाती है।

अंग अंग नग जगमगत दीपसिखा-सी देह।
दिया बढ़ाऐं हू रहै बड़ो उज्यारो गेह ॥१४७॥

अन्वय-दीपसिखा-सी देह अंग अंग नग जगमगत, दिया बढ़ाऐं हू गेह बड़ो उज्यारी रहै।

नग=आभूषणों में जड़े हुए नगीने। दीपसिखा=दीपशिखा, दीपक की टेम या लो। दिया बड़ाऐं हू=दीपक को बुझाने पर भी। उज्यारो=उजेला।

दीपक की लौ के समान उसके अंग-प्रत्यंग में नग जगमगा रहे हैं। अतएव, दीपक बुझा देने पर भी घर में (ज्योतिपूर्ण शरीर और नगों के प्रकाश से) खूब उजेला रहता है।

ह्वै कपुरमनिमय रही मिलि तन-दुति मुकुतालि।
छिन-छिन खरी बिचच्छनी लखति छाइ तिनु आलि॥१४८॥

अन्वय-तन-दुति मिलि मुकुतालि कपूरमनिमय ह्वैं रही छिन-छिन खरी बिचच्छनी आलि तिनु छाइ लखति।

कपूरमनि=कर्पूरमणि=कहरवा, यह पीले रंग का होता है और तिनके का स्पर्श होते ही उसे चुम्बक की तरह पकड़ लेता है। दुति=चमक। मुकुतालि=मुक्तालि, मुक्ताओं के समूह। खरी=अत्यन्त। बिचच्छनी=चतुरा स्त्री। छाइ=छुलाकर। तिनु=तिनके। आलि =सखी।

शरीर की (पीली) द्दुति से मिलकर मुन्ना की (उजली) माला (पीले) कर्पूरमणि--कहरुबा---की माला-सी हो रही है। अतएव, अत्यन्त सुचतुरा सम्बी क्षण-क्षण (उस माला से) तिनका छुला-छुलाकर देखती है (कि अगर कहरुवा की माला होगी, तो तिनके को पकड़ लेगी)।

खरी लसति गोरैं गरैं धँसति पान की पीक।
मनौ गुलीबँद लाल की लाल लाल दुति लीक॥१४९॥

अन्वय--गोरैं गरैं धँसति पान की पीक खरी लसति लाल लाल लीक दुति मनौ लाल की गुलीबँद।

धँसति=हलक के नीचे उतरती है। खरी=अधिक। लसति=शोभती