सटीक : बेनीपुरी अन्वय-जु आछी छबिहिं मलिनु करतु, सहज बिकासु हरतु । अंगनु लगै अंगरागु उसासु पारसी ज्यों। आछी = अच्छी । अंगराग =केसर, चंदन, कस्तूरी आदि का सौंदर्यवर्द्धक लेप । आरसी=आईना । उसास= उच्छ्वास = साँस की भाप । जो सुन्दर शोभा को मी मलिन कर देता है, स्वाभाविक रूपविकास को भी हर लेता है । (उसके ) शरीर में लगा हुआ अंगराग पाईने पर पड़ी साँस की माप-सा (मालम पड़ता) है । नोट-आईने पर साँस की भाप पड़ने से जिस प्रकार उसकी ज्योति धुंधली हो जाती है, अंगराग से नायिका के शरीर की स्वाभाविक ज्योति भी उसी प्रकार मलिन हो जाती है। अंग-अंग प्रतिबिम्ब परि दरपन सैं सब गात । दुहरे तिहरे चौहरे भूषन जाने जान ॥ १५३ ।। अन्वय-दरपन-से सब गात; अंग-अंग प्रतिबिम्ब परि भूपन दुहरे, तिहरे, चौहर जाने जात । आईने जैस (चमकीले ) शरीर में प्रतिबिम्ब (छाया) पड़ने से (अंग-अंग के गहने ) दुहरे तिहरे और चौहरे दीख पड़ते हैं--एक एक गहना दो-दो, तीन- तीन, चार-चार तक मालूम पड़ता है । अंग-अंग छवि की लपट उपटति जाति अछेह । खरी पातरोऊ तऊ लगे भरी-सी देह ।। १५४ ॥ अन्वय--अंग-अंग छवि की लपट अछेह उपटति जानि । खरी पातरीऊ तऊ देह मरी-सी लगे। उपटति जाति = बढ़ती ही जाती है । अछेह =निरंतर, अबाध रूप । खरी=अत्यन्त । पातरीऊ =पतली होने पर भी। अंग-प्रत्यंग से शोभा की लपट अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। (अतएव) अत्यन्त पतली होने पर भी कान्ति के ( अधिकाधिक उमाड़ के कारण) उसकी देह भरी-सी (पुष्ट ) जान पड़ती है 1