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बिहारी-सतसई
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रंच न लखियति पहिरि यौं कंचन-सैं तन बाल।
कुँभिलानै जानी परै उर चम्पक की माल॥१५५॥

अन्वय--कंचन-सैं सन बाल उर चम्पक की माल पहिरि यौं रंच न लखियति। कुँभिलानै जानी परै।

रंच=जरा, कुछ। उर=हृदय।

सोने के ऐसे (गोरे) शरीरवाली (उस) बाला के हृदय पर चंपा की माला (शरीर की धुति और चंपा की धुति एक-सी होने के कारण) जरा भी नहीं दीख पड़ती। (हाँ) जब वह कुम्हिला जाती है, तभी दीख पड़ती है।

नोट-तुलसीदास का एक बरवै भी इसी भाव का है-

चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाइ।
जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाइ॥

भूषन भारु सँभारिहै क्यौं इहिं तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परै सोभा हीं कैं भार॥१५६॥

अन्वय--इहिं सुकुमार तन भूषन-मारु क्यौं सँभारिहै। सोभा ही के भार सूधे पाइ धर न परै।

सुकुमार=नाजुक। सूधे=सीधे। धर=धरा, पृथ्वी।

यह सुकुमार शरीर गहनों के भार को कैसे सँभालेगा? जब सौंदर्य के भार ही से सीधे पैर पृथ्वी में नहीं पड़ते!

नोट--इस दोहे में बिहारी ने मुहाविरे का अच्छा चमत्कार दिखलाया है। 'सीधे पैर नहीं पड़ना' का अर्थ है 'ऐंठकर चलना'। कोई सखी नायिका से व्यंग्यपूर्वक कहती कि बिना भूषण के ही तुम ऐंठकर चलती हो, फिर भूषण पहनने पर न मालूम क्या गजब ढाओगी? साथ ही, इसमें सुकुमारता और सुन्दरता की भी हद दिखाई गई है।

न जक धरत हरि हिय धरैं नाजुक कमला-बाल।
भजत भार भयभीत ह्व घनु चंदनु बनमाल॥१५७॥

अन्वय--नाजुक कमला-बाल हरि हिय धरैं न जक धरत। घनु, चंदन, बनमाल भार भयमीत मजत।