नोट--कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है--
प्यारी के नाजुक पायँ निहारिकै हाथ लगावत दासी डरैं।
धोवत फूल गुलाब के लैपै तऊ झझकै मति छाले परें॥
मैं बरजी कै बार तूँ इत कति लेति करौट।
पँखुरी लगैं गुलाब की परिहै गात खरौट॥१६०॥
अन्वय--मैं कै बार बरजी, तूँ इत कति करौट लेति। गुलाब की पँखुरी लगी गात खरौट परिहै।
बरजी=मना किया। इत=इधर। कति=क्यों। पँखुरी=पंखड़ी, गुलाब के फूल की कोमल पत्तियाँ। खरौट=खरौंच, निछोर।
मैं कई बार मना कर चुकी। (फिर भी) तू इस ओर क्यों करवट बदलती है? (देख, इधर गुलाब की पँखड़ियाँ बिखरी हैं) गुलाब की पँखड़ियों के लगने से तुम्हारे शरीर में खरौंच पड़ जायँगे—शरीर छिल जायगा।
कन देबौ सौंप्यो समुर बहू थुरहथी जानि।
रूप रहचटैं लगि लग्यौ माँगन सबु जगु आनि॥१६१॥
अन्वय--बहू थुरहथी जानि ससुर कन दैबौ सौंप्यौ। रूप रहचटैं लगि सबु जगु आनि माँगन लग्यो।
कन=कण=भिक्षा। बहू=वधू=पतोहू। थुरहथी=छोटे हाथोंवाली। रहचटैं=चाह, लालच। लगि=लगकर। आनि=आकर।
पतोहू को छोटे हाथोंवाली समझकर--उसकी छोटी हथेली देखकर-- (कंजूस) ससुर ने भिक्षा देने का (भार उसीको) सौंपा (इसलिए कि हथेली छोटी है, भिक्षुकों को थोड़ा ही अन्न दिया जा सकेगा); किन्तु (उसके) रूप के लालच में पड़ सारा संसार ही आकर (उससे भिक्षा) माँगने लगा!
नोट--छोटी हथेली स्त्रियों की सुन्दरता का सूचक है।
त्यौं त्यौं प्यासेई रहत ज्यौं ज्यौं पियत अघाइ।
सगुन सलोने रूप की जुन चख-तृषा बुझाइ॥१६२॥
अन्वय--ज्यौं ज्यौं अघाइ पियत त्यौं त्यौं प्यासेई रहत। सगुन सलोने रूप की जु चख-तृषा न बुझाइ।