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सटीक : बेनीपुरी
 

अघाइ=अफरकर, तृप्तिपूर्वक, छककर। सगुन=गुणसहित। सलोने=लावण्ययुक्त, नमकीन। चख=नेत्र। तृषा=प्यास।

जितना ही अघा-अघाकर पीते हैं, उतना ही प्यासे रह जाते हैं। गुणों से युक्त लावण्य-भरे रूप की--इन नेत्रों की--प्यास शान्त नहीं होती--अर्थात् इन नेत्रों को उसके लावण्यमय रूप के देखने की जो प्यास है, वह नहीं बुझती।

नोट--'सलोने' शब्द यहाँ पूर्ण उपयुक्त है। नमकीन पानी पीने से प्यास नहीं बुझती। त्योंही लावण्यमय रूप देखने से आँखें नहीं ऊबतीं या अघातीं।

रूप-सुधा-आसव छक्यौ आसव पियत बनैन।
प्यालै ओठ प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐं नैन॥१६३॥

अन्वय--रूप-सुधा-भासव छक्यौ, आसव पियत न बनै। प्याले ओठ नैन प्रिया-बदन लगाऐं रह्यौ।

रूपसुधा=अमृत के समान मधुर रूप। आसव=मदिरा। छक्यौ=भरपेट पीने से। बदन=मुख।

अमृतोपम सौंदय-रूपी मदिरा पीने के कारण (साधारण) मदिरा पीते नहीं बनती। (मदिरा के) प्याले तो ओंठ से लगे हैं, और आँखे प्यारी के मुख पर अड़ी हैं, वह एकटक प्यारी का मुख देख रहा है, पर बेचारे से मदिरा पी नहीं जाती।

दुसह सौति सालैं सुहिय गनति न नाह बियाह।
धरे रूप-गुन को गरबु फिरै अछेह उछाह॥१६४॥

अन्वय--सौति दुसह, सुहिय सालैं; नाह बियाह न गनति। रूप-मुन कौ गरबु धरे अछेह उछाह फिरै।

गनति न=नहीं गिनती, परवा नहीं करती। नाह=पति। अछेह=अनन्त, अधिक। उछाह=आनन्द, उत्साह।

सौतिन सदा दुस्सह होती है, वह हृदय में सालती है (यह जानकर भी वह नायिका) पति के (दूसरे) विवाह की परवा नहीं करती। (अपने) रूप

और गुण के गर्व में मस्त हो अनन्त आनन्द से विचर रही है।