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बिहारी-सतसई
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लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर॥१६५॥

अन्वय--जाकी सबी गरब-गरूर गहि-गहि लिखन बैठि जगत के केते चतुर चितेरे कूर न भए।

सबी=चित्र। गरूर=अभिमान। केते=कितने। चितेरे=चित्रकार। कूर=बेवकूफ।

(उस नायिका के रूप का क्या कहना!) जिसके चित्र को अत्यन्त गर्व और अभिमान के साथ बनाने के लिए बैठकर संसार के कितने चतुर चित्रकार बेवकूफ बन गये--उनसे चित्र नहीं बन सका!

नोट--

शक्ल तो देखो मुसव्विर खींचेगा तसवीरे यार।
आप ही तसवीर उसको देखकर हो जायगा॥-ज़ौक

(सो०) तो तन अवधि अनूप, रूप लग्यौ सब जगत कौ।
मो दृग लागे रूप, दृगनु लगी अति चटपटी॥१६६॥

अन्वय--तो तन अनूप अवधि, सब जगत को रूप लग्यौ। मो दृग रूप लागे दृगनु अति चटपटी लगी।

अवधि=सीमा, हद। दृग=आँख। चटपटी=व्याकुलता।

तुम्हारा शरीर अनुपमता की सीमा है--इसकी समानता संसार में है ही नहीं। (क्योंकि इसके रचने में) संसार-भर का सौंदर्य लगाया गया है-- (जहाँ, जिस पदार्थ में, कुछ सौंदर्य मिला, सब का समिश्रण इसमें कर दिया गया है)--मेरी आँखों में (तुम्हारा वह) रूप आ लगा है--समा गया है; (फलतः) आँखों में अत्यन्त व्याकुलता छा गई है--वे व्याकुल बनी रहती हैं।

नोट-ठाकुर कवि के "कंचन को रंग लै सवाद लै सुधा को वसुधा को सुख लूटिकै बनायो मुख तेरो है" के आधार पर पं० रामनरेश त्रिपाठी के 'पथिक' में सौंदर्य-सामग्रियों का कथन यों किया गया है--

कहते थे तुम कोमलता नीरज को, ज्योति रतन की।
मोहकता शशि की, गुलाब की सुरभि, शान्ति सज्जन की॥