रति का रूप, रंग कंचन का, लेकर स्वाद सुधा का।
विरचा है विधि ने मुख तेरा सुख लेकर वसुधा का॥
त्रिबली नाभि दिखाइ कर सिर ढँकि सकुच समाहि।
गली अली की ओट ह्वै चली भली विधि चाहि॥१६७॥
अन्वय--त्रिबली नाभि दिखाइ, सकुच समाहि सिर ढँकि कर अली की ओट ह्वै भली बिधि चाहि गली चली।
त्रिबली=नाभी के निकट की तीन रेखाएँ। सकुच समाहि=लाज में समाकर, लज्जित होकर। अली=सखी। चाहि=देखकर।
त्रिबली और नाभी दिखकर (फिर) लज्जित हो सिर ढँककर हाथ उठाकर--हे सखि, वह (अपनी) सखियों की ओट ही भली भाँति (नायक को) देखती हुई गली में चली गई।
देख्यौ अनदेख्यौ कियै अँगु-अँगु सबै दिखाइ।
पैंठति-सी तन मैं सकुचि बैठी चितै लजाइ॥१६८॥
अन्वय--अँगु-अँगु दिखाइ देख्यौ अनदेख्यौ कियै। तन मैं पैठति-सी चितै लजाय सकुचि बैठी।
सकुचि=संकोच करके। लजाय=लजाकर।
(पहले तो उस नायिका ने) सभी अंग-प्रत्यंग दिखाकर (नायक को) देखती हुई भी अनदेख कर दिया--यद्यपि वह उसे देख रही थी, तो भी न देखने का बहाना करके अपने सभी अंग उसे दिखा दिये। (फिर उस नायक के) तन में पैठती हुई-सी--उसके चित्त में युवती हुई-सी--वह मन में लजाकर संकोच के साथ बैठ गई।
बिहँसि बुलाइ बिलोकि उत प्रौढ़ तिया रसघूमि।
पुलकि पसीजति पूत कौ पिय चुम्यौ मुँहु चूमि॥१६९॥
अन्वय--बिहँसि बुलाइ उत बिलोकि, प्रौढ़ तिया रसघूमि पूत कौ पिय चुम्यौ मुँहु चूमि पुलकि पसीजति।
बिसि=हँसकर, मुस्कुराकर। उत=उधर। प्रौढ़=प्रौढ़ा, पूर्णयौवना।