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सटीक : बेनीपुरी
 

कुछ बहाना करके दरवाजे से लौट (उसने) मुस्कुराकर (मेरी ओर) देखा। (यों) वह स्त्री आई (तो) जामन लेने, (और) गई प्रेम जमाकर-- प्रेम स्थापित कर।

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यों बूड़ै स्याम रँग त्यौं-त्यौं उज्जल होइ॥१८३॥

अन्वय--या अनुरागी चित्त की गति कोइ नहिं समुझै। ज्यों-ज्यों स्याम-रँग बूड़ै त्यौं-त्यौं उज्जल होइ।

गति=चाल। कोइ=कोई। स्याम-रँग=काला रंग, कृष्ण का रंग। उज्जल=उज्ज्वल, निर्मल।

इस प्रेमी मन की (अटपटी) चाल कोई नहीं समझता; (देखो तो) यह ज्यों-ज्यों (श्रीकृष्ण के) श्याम-रंग में डूबता है, त्यों-त्यों उजला ही होता जाता है।

होमति सुखु करि कामना तुमहिं मिलन की लाल।
ज्वालमुखी-सी जरति लखि लगनि अगिन की ज्वाल॥१८४॥

अन्वय--जाल, तुमहिं मिलन की कामना करि सुखु होमति लखि, लगनि अगिन की ज्वालमुखी-सी जरति।

होमति होम करती है, आग में डालती है। लखि=देखो। लगनि=प्रेम।

हे लाल! तुमसे मिलने की कामना करके (वह) सुख का होम (विसर्जन) कर रही है। देखो! (उसकी) प्रेमाग्नि की ज्वाला ज्वालामुखी (पर्वत) के समान जल रही है। (वह ज्वाला शान्त नहीं होती, क्योंकि सुखों की आहुति तो बराबर पड़ रही है।)

मैं हो जान्यौ लोइननु जुरत बाढ़िहै जोति।
को हो जानत दीठि कौं दीठि किरकिरी होति॥१८५॥

अन्वय--मैं जान्यौ हो लोइननु जुरत जोति बाढिहै। को जाननु हो दीठि को दीठि किरकिरी होति।

मैं हो जान्यौ=मैं जानती थी। लोइननु=आँखें। को हो जानत=कौन जानता था। दीठि=नजर, दृष्टि। किरकिरी=आँख में पड़ी धूल।