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बिहारी-सतसई
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भृकुटी-मटकनि पीत-पट चटक लटकती चाल।
चल चख-चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारीलाल॥१९१॥

अन्वय--भृकुटी मटकनि, पीतपट चटक, लटकती चाल, चल चख चितवनि बिहारीलाल चितु चोरि लियौ।

भृकुटी=भँव। चटक=चमक। लटकती चाल=इठलाती चाल। चल=चंचल। चख=आँखें। चोरि लियौ=चुरा लिया।

भँवों की मटकन, पीताम्बर की चमचमाहट, मस्ती की चाल और चंचल नेत्रों की चितवन से बिहारीलाल (श्रीकृष्ण) ने चित्त को चुरा लिया।

दृग उरझत टूटत कुटुम सुरत चतुर-चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हियैं दुई नई यह रीति॥१९२॥

अन्वय--उरझत दृग, टूटत कुटुम, प्रीति जुरत चतुर चित, गाँठि परति दुर्जन हियैं, दई, यह नई रीति।

दृग=आँख। उरझत=उलझती है, लड़ती है। टूटत कुटुम=सगे सम्बन्धी छूट जाते हैं। जुरत=जुड़ता है; जुटता है। हियैं=हृदय। दई=ईश्वर। नई=अनोखी।

उलझते हैं नेत्र, टूटता है कुटुम्ब! प्रीति जुड़ती है चतुर के चित्त में, और गाँठ पड़ती है दुर्जन के हृदय में! हे ईश्वर! (प्रेम की) यह (कैसी) अनोखी रीति है!

नोट--साधारण नियम यह है कि जो उलझेगा, वही टूटेगा; जो टूटेगा, वही जोड़ा जायगा; और जो जोड़ा जायगा, उसीमें गाँठ पड़ेगी। किन्तु यहाँ सब उलरी बातें हैं, और तुर्रा यह कि उलटी होने पर भी सत्य हैं। यह दोहा बिहारी के सर्वोत्कृष्ट दोहों में से एक है।

चलत धैरु घर घर तऊ घरी न घर ठहराइ।
समुझि उहीं घर कौं चलै भूलि उहीं घर नाइ॥१९३॥

अन्वय--घर घर घैरु चलत तऊ घरी घर न ठहराइ। समुझि उहीं घर कौं चलै, भूलि उहीं घर जाइ।