पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१०४

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विहारीविहार । ऍचति सी चितवन चितै भई ओट सरसाय ।। | फिर उझकन क मृगनयनि दृगनि लगनियाँ लाय ॥६३।। दृगान लगनियाँ लाय रही जादू सो कोने । मदनमन्त्र सो जपत ओट। चूंघट की दीने ॥ नखरीली नई नारि हाव अरु भाव भरी अति । सुकवि हिँ लखि उठि चली प्रान अपने सँग हुँचति ॥ ५ ॥ -= -.31-= 4.- - -f4 h - 42 55a1- दूरौ खरे समीप को मानि लेत मन मोद।। होत दुहुन के दृगन हीं बतरस हँसी विनोद ॥ ६४ ॥ चतरस हँसी विनोद और रूसनि समुझावनि । विनय विविध विधि प्रेमभरी अरु दोष छमावनि ॥ खिझनि खिझावनि हिलान मिलन पावनि । सुख पूरी । सव ही होत विनोद सुकवि दोउन के दूरौ ॥ १६ ॥ 55L LA14:

-44 -1 .5 जदपि चवायनि चीकनी चलति चहूँ दिसि सँन ।। तदपि न छाड़त दुहुनि के हँसी रसीले नैन । ६५ ॥ | हँसी रसीले नैन न छाँड़त नेहअन्हाये । तिरछी' तकनि न तजत जऊ हैं

  • कलु सरमाये । सुकवि ललित अतिलोल लरजि लगि रहे लुनाइन । घरि घरि

न घर घेर करत हैं जदपि चवाइन ॥ ७ ॥ 1 .1 4 -4.

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सटपटाति सी ससिमुखी मुख चूंघटपट ढॉकि। पविकझर सी झमकि के गई झरोखा झाँकि ।। ६६ ।। गई झरोखा झाँकि झुलनियाँ फँमि झुमावति । झूमक दोउ झमकाई हरति हिय मृदु मुसकावति ॥ रूपभिखारिन भीख देत तिय चटपटात सी । । ३ लटपटात सी गई सुकवि वह सटपटात सी ।। ६२ ।। == = = ।