पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१०९

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बिहारीबिहार ।।

  • और गति औरै बचन भयो बदनसँग और।।

| + द्यौसक तें पियचितचढ़ी कई चढौहँ त्यौर ॥ ८१ ॥ त्यौर भये कछु और कपोलन हँसी बिराजति । तकि तिरछौंहीं तकनि मदनसर से जनु साजति ॥ पूँघट हुँचत अली हहा क्यौं हियरो हुँचति । छन छन औरै भई सुकब्रि औरै औरै गति ॥ ११५ ॥ . . रही फेरि मुहँ हेरि इत हित समुहँ चित नारि ।। दीठे पंरत उठि पीठ की पुलकें कहत पुकारि ॥ ८२ ॥ पुलकें कहत पुकारि सबै तुव हिय की बातें । तू कत बदन छिपाइ जात पैठी निज गातें ॥ क्याँ न लगत हरिहीय करत लख कोकिल कुहुकुह । सु ६ कवि न यह छिप सकै कहा तू रही फेरि मुहँ ॥ ११६ ॥ वै ठाढ़े उमदात उत जल न बुझै बड़वागि। जाही सौं लाग्यो हियो ताही के उर लागि ॥ ८३ ॥ ताही के उर लागि जाहि के रँग तू बोरी । लगे कलङ्क हु अङ्क लगत नहिँ कैसी भोरी । होत कहा दुरबचन चवाइन जो मुखकाढ़े । बार बार नहिँ मिलत सुकवि द्वारे वै ठाढे ॥ ११७॥ लागि हये परवाह न करि तू कछु कलङ्क की । भीति कहा है घरहाइन

  • के वचन वङ्क की ॥ प्रीति करी सोकरी परी का संसय गाढे । सुकवि प्रेम

भरि दौरि देखु कुंजन वै ठाढ़े ॥ ११८ ॥ ताही के उर लागि कसति का भुज सौं सोही । चुमति बिहंसि कपोल । । अली का व्है गयो तोही ॥ अलकावली सम्हारि चलति है. गलबहिीं है । । सुकवि हु पै दृग डारि देखु उमदाइ, रहे वै ॥ १.१६ ॥

  • * यह दोहा हरिप्रकाश टौकी. और अनवरचन्द्रिका में नहीं है। * दोहा ४८ की टिप्पणी ।

चुनः। पुनः ।।