पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/११२

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विहारीविहार । विनगुन मन मोहति ॥ भये अरुनर नैन अधिक आलस स घेरे । सुकवि स्यामछवि लखी कहत का कानन मेरे ॥ १२७॥ पुनः ।। । लखि बिंदुरी पियभाल भाल तुअ खौरि निहारी । लखि तुअ जूरा उन

  • की वेनी. गुही सुढारी ।। तुअ लिलार उनके पग दाग महाउर सूझे । सुकाव

तऊ अनखाइ रही तू मेरे बूझे ॥ १२८ ॥ == सुरति दुराई दुरति नहिँ प्रगट करात रतिरूप । छुटे पीक औरै उठी लाली ओठ अनूप ॥ ९१ ॥ । लाली ओठ अनूप आजु ल हम नाहिँ देखी । वीच वीच छत करत चुनी ज्यों चमक विसेखी ॥ होन हुती सो भई बात क्यों करते बनाई । सु- । कवि सहेलिन निकट दुरति नहिँ सुति दुराई ॥ १२ ॥ ।

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= = =-=-=-=- - =- 4- - - 4 -- रँगी सुरतसँग पियहिये लगी जगी सब राति । पेंड़ पॅड़ पै ठठकि कै ऍडभरी ऍड़ाति ।। ९२ ॥ | ऐंडभरी ऍड्राति अलसभरि लेत अँभाई । नैनन मलि समुहाइ नेकु ३ मुख लेत छिपाई ।। अँचरा ओठन पछि सँवारति केस सिथिल अँग। सुकवि आरसी देखि रही तिय रँगी सुतिरँग ।। १३० ॥ +1 . - . . 5 4 1 - =-.:. =- ४ तरवनकनक कपोलद्वति वीच हिँ बीच बिकान ।। लाल लाल चमकत चुनी चौकाचीन्हसमान ॥ ९३ ॥ . चौकाचन्हसमान चुनी की चमक सुहाई । चुना ज्यों भी बुलाक की = = = FA ..

• तरकी का भौना गान की छटा के बीच ही दच मिल गया। लाल लाल चुदी चमकती है जैसे

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