विहारीविहार।
- दहैं निगोड़े नैन ये गहूँ न चेत. अचेत ।..:::::
| हाँ कसि कै रिस क करौं ये निरखें हँसि देत ॥ १००॥ ये निरखें हँसि देत रोस की बात उड़ावत । झमकत ठमकत चटकि म- टकि अति ही सरसावत ॥ लगत ललकि कै ललचि सुकबि पुनि मुड़त न मोड़े । कहा करौं मैं हहा नैन ये दहें निगोड़े ॥ १३९ ॥ . ... पुन: । ये निरखें हँसि देत रोव कछु रहन न पावत । मेरी झझकनि सबै मान
- की नकल वनांवत ॥ ऍड़भरे मुंहजोर चपल ज्याँ अड़ियल घोड़े। कहा करों
मैं हहा नैन ये हैं निगोड़े ॥ १४० ।। मोहि लजाबत निलज ये हुलसि मिलें सब गात। .. | भानुउदय की ओस ल माल न जान्यों जात ॥ १०१।। -: .. | मान न जान्यो जात कहाँ धे जात समाई । मोरपखौ लखत तज़त दोउ नैन रुखाई ॥ तु हू वावरी भई भटू मो क बहरावत।क्यों रूसन कहि. सुकवि स्याम ढिग सोहि लजावत ॥ १४१ ॥.. .. " पुनः । | मान न जान्यो जात कमल से नैन खिलत दोउ। विलग होत तमपुंजस-
- रिस कछु कोह कियो जोउ ॥ चुपसाधन हू टुटत नींद सी रहन न पावत ।।
सुकवि स्यामसँग रूसनि अति ही मोहि लजावत ॥ १४२ । | .:: :: :: : : ::. पुनः । :: :: :: : : : : जात कठिनता उर की लखि उनके कोमल अंग ।।. नैनअरुनता जात । साँवरो लहि उनको रँग ॥ उन मधुराई देखि तजत कटुता हिय कोही। सुकवि
- नेह सौ सिँचें रुखाई छाँड़त मो-ही ॥ १४३ ॥
३ यह दोहा अनंवरचन्द्रिका में नहीं है । : । ..