पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/११७

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बिहारीविहार । , नहिं नचाय चितवति दृगन नहिँ बोलति सुकाय । |ज्यों ज्यों रुख रूख करति त्याँ त्यों चित चिकनाय ॥ १.०६ ॥ त्य त्याँ चित चिकनाई करत रूखो रुख ज्याँ ज्यौं। या स मौन हिँ सा- । धि देवकि वैठी तिय ज्यौं त्य ॥ हरिहिय लपटलचाह उतै इत मान रही गहि ॥ सङ्कट मैं तिय परी सुकवि करि सकत कछु नहिँ ॥ १४८ ॥ .. | तो ही कौ छुटि मान गौ देखते ही ब्रजराज। ' रही धरिक लौं माल सी मान किये की लाज ॥ १०७ |. मान किये की लाज नाहिँ कछ बचन उचारलि । साध रही टकटकी भरी चकपकी निहारति ॥ कर मलि मलि छिपि गई चहूँ दिसि सखी किती को । सुकवि कोरि वलि जाँउँ प्रेम धनि री तो ही को ॥ १४९ ॥ कियो जु चिबुक उठाय करि कम्पत कर भरतार ।। टेडीयै टेढ़ी फिरति टेढ़े तिलक लिलार ॥ १०८ ॥ | टेढे तिलक लिलार और टेढ़ी ही अलकन । टेढ़ी भौहँनि टेढ़ी चितवन टेढी पलकन ॥ टेढ़े टेढ़े नैन बैन मन चोरि लियो जो । सुकबि बुझिगयो हेतु तिलक भरतार कियो जो ॥ १५० ॥ | तुम सौतिन देखत दुई अपने हिय तें लाल । फिरति सवन मैं डहड़ही बहै मरगजी माल ॥ १०९ ॥ | वह मरगजी माल भूलि गर तें न उतारति । छन छन झुकि झुकि

  • निरखि पुलकि दृग ऑसुन ढारति ॥ सारी साँ नहिँ ढकति फैर फिर दरपन ।
  • पेखत ॥ सुकवि कियो कछु टोना सौ तुम सौतिन देखत ॥ १५१ ॥