विहारीविहार ।।
- उपजावतं झारी ॥ कवि तिहारो दोष कौन भाषत घनस्यामा । करै
कोउ भयो जु पै मेरो विधि वामा ।। १७६ ॥ : पुनः ।। पावस चलत विदेस तऊ भात हो प्यारी । करत छछट्को हीय व कसत मुरारी ॥ प्रान हरत अरु मनाया बोलत विनु कासा । सुकवि
- चलिर्जीउ कहत किन वासा झाला ॥ १८० ॥
पुनः ।। पावस चलत विदेस छाँड़ि जसरिस जासिनी । तऊ कामना - तिहारी कहहु कामिनी ॥ मान करन को रोष याद करि भाषहु भा
- सुकवि वाम विधि भये कहहु या स मोहि बामा ॥ ११ ॥
| मिलि चलि चलि मिलि मिलि चलत आँगन अथयो भार भयो मुहूरत भोर तें पौरी प्रथम मिलान ।। १३६ ॥ पौरी प्रथम सिलान भोर तें संझा कीनी । प्रेमपयोधि तरङ्ग अजहुँ । गत रसभनी ॥ बार बार कछु कहत दोऊ मिलि जात दुहुँ चलि । सु विरह सहि सकत नाहिँ आवति पुनि भिलि मिलि ॥ १२ ॥ | चाहभरी अति रिसभरी बिरहभरी सब बात। कोरि सँदेसे दुहुन के चले पौरि लौं जात ॥ १३७ ॥ | चले पौरि ले जाते सँदेसे होत ने पूरे । सौ सौ पलटे खाते रहते तऊ अधूरे ॥ अधिक उराहन भरे प्रेम परवस कीनी मति । सुकवि ! यह हभरी अरु चाहभरी ति ॥ १८३ ॥ नये विरह बढ़ती विथा भई बिकलाजय बाल । ' विलखी देखि परोसिन्यौ हरषि हँसी तिहि काल ॥ १३८ हरखि हँसी तिहिँ काल परोसिन को दुख निरखत । सौतिन अलप व
- छटूको = छ टुकड़े वाला ॥ पटूको = पटुका = कमरबन्धा ।
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