पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१२८

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विहारविहार ।। 4 हु किहिँ नहिँ हरखनि वरखत। उनमुख पीरो लखत रङ्ग सुख औरै उनये । सुकवि छनक मैं उमॅगि उठे पुनि वियोग जु नये ॥ १८४ ॥

  • चलत देत आभार सुनि वही परौसिनिनाह।

लसी तमासे के दृगनि हाँसी आसुनि मह ॥ १३९ ॥ हाँसी आँसुन माँहिँ सुरकि के पुनि हरियाई । पीरे जुगल कपोलन पुनि छाई अरुनाई ॥ भयो निहँचै हरिमिलन नैन दोउ पाँछे अंचल । सुकवि स्यामदरसनप्यासी गूजर भई चंचल ॥ १८५ ॥ भये वटाऊ नेह तज बाद बकति बेकाज । अव अलि देत उराहनौ उर उपजत अति लाज ॥ १४० ॥ उर उपजात अति लाज कही पुनि पुनि का कहिये। निघरघटो लखि के मन ही मन मैं दुख सहिये ।। दैव भयँ प्रतिकूल दोस दीजै जनि काऊ । सुकवि स्याम की बात कहा वे भये वटाऊ ॥ १८६ ॥ = = = = ==

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११ १ १ १ १ १ मृगनयनी दृग की फरक उर उछाह तन फूल ।। विन हीं पियआगम उमगि पलटन लगी दुकूल ॥ १४१॥ पलटने लगी दुकूल आगमन निहँचे मान्यो। तिलक सँवारयो भाल नैन- जुग अञ्जन ठान्यो । झवा झुलावति झुकात उझकि झाँकति पिकवयनी ।। ३ फूली फूली सुकवि निज हिँ विसरी मृगनयनी ॥ १७ ॥ ॐ यह दोहा अनवरचन्द्रिका में नहीं है ।

  • नायिका को परोसी से प्रेम है। पति विदेश जाता है सो उसी परोसिन के ना को

में अपने घर का दोझा दिये जाता है यक्ष मुनतेही तमामे की दृष्टि में ऑमुपों में हँसी नस ।। अाभार : बोझा १३