पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१३५

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| विहाराबहार।। | मिलि छाँही अरु जोन्ह स रहे दुहुनि के गात ।। हरि राधा इक संग ही चले गली मैं जात ॥ १६४ ॥ | चले गली मैं जात चाँदनी मिल गई प्यारी । छाया मैं मिलि स्याम चले। । त्य कुंजविहारी ।। कोऊ नाँहि लखि सकते गहे दोउ दोउन बाँही । सुकाव अलख भये साँच दोऊ मिलि जोन्हछ रु छाँही ॥ २१३ ॥ पलनि पीक अंजन अधर धरे महावर भाल। आज मिले सु भली करी भले बने हौ लाल ॥ १६५ ॥ भले बने हो लाल आते हि क्यों हिय समावत । पीतम्बर क ऍचि कपो- लन कहा छिपावत ॥ पूछत वातन सुकवि कहा ठानत हो छल बल । दरपन ल्यावति अबै स्याम ठाढ़े रहियो पल ॥ २१४ ॥ मरकतभाजन सलिलगत इंदुकला के बेष। | झीन झशा में झलमलै स्यामगातनखरेख ।। १६६॥ स्यालगातनखरेख कला जनु बिधु की राजै । सेदकनन को जाल नखत- गन सारस बिराजै । बिथुरी सी उपवीत देवबीथी मोहत मन ही प्रतिबिम्बित नभ मनहूँ सुकबि जल मरकतभाजन ॥ २१५ ॥

वैसीये जानी परति झगा ऊजरे मॉह । मृगनयनी लपटी जु हिय बेनी उपटी बाँह ॥ १६७ ॥ | वेनी उपटी बाँह कण्ठाढिग सेंदुर लाग्यो । कुचकेसर को दाग हिये सोहत । रसपाग्यो । आवत अङ्ग सुगन्ध फुलेल चमेली कैसी । सुकबि स्याम तड़. वात वनावत ऐसी वैसी ॥ २१६ ॥

४ रु= अरु ।