पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। बिहारीबिहार। अनत बसे निसि की रिसनि उर बररह्यो विसेषि । तऊ लाज आई झकति खरे लजौहें देखि ॥ १८८ ॥ खरे लजौहँ देखि लाज़ अँग अङ्ग दबावति । दृग अरसाने लखत नैन नाहिन समुहावत ॥ कहि न सकत कछु जऊ मौन पिय लागत है विस । उफन रही रिस सुकबि स्याम लखि अनत असे निस ॥ २३७॥ . . ।

  • फिरत ज़ अटकत कटनि बिन रसिक सुरस न खियाल।।

अनत अनत नित नित हितनु कत सकुचावत लाल ॥१८९॥ । कत सकुचावत लाल नेह नित नयो बनावत । नित मो हाहा खाइ और सौं नैन लगावत॥ तुम का जान निलज चोट जानत है गिरत जु । सुकबि कहत क्यों प्यारी मोकौं घर घर फिरत जु ॥ २३८ ॥ कित सकुचत निर्धारक फिरौ रतियो खोरि तुम्है न।। कहा करौ जो जाइ ये ल लगेंहूँ नैन । १९० ॥ लगै लगेंहूँ नैन लाल तुमरो कत दोस। क्यों कुम्हिलावत बदन करत को तुम पै रोसू॥ विचरो चाहे जहाँ रहहु नित आनंद मैं रतः । कोऊ बिधि -नहिँ खोरि सुकवि तुम संकुचत हो क़त ॥ २३९ ॥ ... तेह तरेरौ त्यौर करि कत करियत हंग लील। लीक नहीं यह पीक की श्रुतिमनिझलक कुपोल ॥१९१॥ श्रुतिमानझलक कपोल तमोलन छाप न होही । कुंकुम, जावक समुझि में होत क्याँ कामिनि कोही ॥ बिन पूछे समुझे बिनु जिय क्यों करत करे ।

  • तिरछे लखि लखि सुकबि तानि रही तेह तरेरो ॥ २४० ॥

ॐ कटनिबिनु चूर चूर भये बिना ॥ सरस = यह शृङ्गार रस है ॥ न खियाल =.क्या तुम नहीं है । जानते !! अथवा खेल नहीं है। यह दोहा अनवरचन्द्रिका में नहीं है। ......