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.- विहारविहार।
- कहा लडेते हग करे परे लाल बेहाल । ...
कहुँ मुरली कहूँ पीतपट कहूँ मुकुट बनमाल । २२७॥ कहूँ मुकुट बनमाल कहूँ पुनि लकुट गयो पारि । कहुँ गुल्ला को झवी कहूँ । कलागया गई ढरि ॥ बोलत अटपट बात सुनत कछु नाहिँ कहे ते। सुकवि
- मोहनीभरे करे दृग कहा लड़ते ॥ २७८ ॥
य दलमलियत तिरदुई दई कुसुम. से गात ।। कर धर देखौ धरधरा अजों न उर को जात ॥ २२८ ॥ अज न उर को जात धरधरा कर धर देखो । सुकवि सुमिरतै सेद क- पोलन आवत पेखो ॥ कंचुकि दरकी लरकी लर विथुरे कच रहियत । कर की चूरी करकिगई अंग याँ दलमलियते ॥ २७९ ॥ . ..। मै तो स कै वा कह्यौ तू जिन इन्हें पत्याय । लगालगी करि लोइनन उरे में लागी लाय ॥ २२९॥ उर में लागी लाय प-यो तव तें पीरो अँग । कारे भये कपोल रैन दिन के आँसुनसँग ॥ सदा उनमनी रहति जाति देखी नहिँ मो सौं । सुकवि अजहूँ ताजि प्रीति कह्यो कै वा मैं तो स ॥ २८० ॥ . पुनः . उर में लागी लाय धुंआ सी छाई अगेन । दृग जनु अदहन चहत दहकि ५ रह्यो हाय छाम तन ॥ भये ज्वाल से साँस रह्यो ढिग जात न मो सों । - तु नहिं मानी सुकवि कह्यो के वा में तो स ।। २८१ ॥ मन न धरति मेरो कह्यो तु अपने सयान । अहे पनि परि प्रेम की परथ* पार न प्रान ॥२३॥ परहथ पार न पान जाउँ चलि मान छबीली । नई सासरे आइ होत हे
- ए : पदे छ ।
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