द्विजदेव जू ऐसे कुतर्कन मैं सव की सति यही फिरै भटकी । वह मं चलै किन भोरी भटू पग लाखन कौं” अखियँ अटकी ॥२॥ इनकी रचित शृङ्गार चालीसी में भी अछी कविता है उदाहरणार्थ कुछ उद्धृत की जाती है, आज मणिमन्दिर मनोजमद चाखें दोऊ लगनि लगालगि के मगन मजेज पर । द्विजदेव ताहूं मैं दुहूं के अलि अानन की दूनी दुति है रही तमीपति के तेज पर ॥ * ने मुझ सम्हारि छुन वलन छरा की वन्द पौढ़ि रहे पानि धरि कमल कालेज पर ।। छूटे रति समर छपा को सुइव लूटि दोऊ नौदे रति मदन उनीदे परे सेज पर ॥३०॥
- स्वेद कट्टि अायो वढियो कछू कंप सुरवहू ते अति आखिर कढ़त अरसै लगे ।
। हिनदेव तैसे तन तपत हँदूरन ते तपत हँदूर से सरीर झरसै लगे ।
- एते पै तिहारी सौं” तिहारे बिन श्याम बाम नैननि लें आँसूहू सरस बरसै लगे ।
। एक रितुराज काल्ह अायो व्रजमाहिं आज पँचों रितु प्यारी के सरीर दरसे लगे ॥ | बँचत न कोऊ अव वैसिवै रहति रवास जवती सकल जानगई गति वाकी है । झूठ लिग्विव की उन्हें उपनै न लाज केहूं नाय कुविजा के वसे निलज तियाकी है ॥
- इमरी अवध हिनदेव राधिका वै अागे बँचे कौन नारि जौन पोढ़ छतिया की है ।
में ऐसही सुवागर कहो सो कहों आधी इहैं। उठि गई ब्रज ते प्रतीत पतिया की है ॥ में अब मति दें री कान कान्ह की बसीठिनि मैं झूठे झूठे प्रेम के पतौवन को फेरि है। उरझि रहीती जो अनेक मुरिघातें सोऊ नाते की गिरह मूदि ने ननि निवेरि दे । मरन चइत काहू छैल में छबीली को हायन उँचाय ब्रज वीथिनि मैं . टेरि है ।। में नह री कहां को जरि विहरी भई तो मेरी देहरी उठाय वाकी देहरी मैं गरि दें ॥” । । इनके सभा पड़ित बीजगन्नाथ कवि ने कति मुक्तावनी नामक संस्कृत में एक छोटा सा १ ५६ ॥
- रोक के अन्य बनाया है। इसमें महाराज का इतिहास और वगन लिखा है पर यः ग्रन्त्य इतिहाम्
- दङ्ग नहीं : फाष्य दङ्ग पर है । इस कारण मुंवत् प्रादि का कहीं पता नहीं लगता है। मुंवत् १९३६ में
- गप गट ३ इन के, सो, एस, माई का पद दिया था ।
- थे। पन्त प्रतिष्ठापूर्वक राव्यशान कर सं. १८२० ये अयोध्यानरम महाराज मानसिंह म ।
को मार संसार को तोड़ दम पधारे । जैमा कति मुक्तावली के अन्त में क्षिप्त झाक है।
- सप्ताशयावत्सरवरे याम्यायने याम्यभः
६३ मासि सितेऽपराह्ममयै भीम दितीयान्विते । Trrrrrrrrrrrrrrrrrrry ११