पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१६०

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विहारविहार ।। में हो जान्यौ लोयननि जुरत बाढिहै जोति । । को हो जानत दीठि क दीठि किरकिरी होति ॥ २५७ ॥ दाठि किरकिरी होति उमॅगि अँसुवान बहावति । नींद हरति है अरुन देइ दुख आत भभरावात ॥ भाँजि हु सुखी रहति कलेस न जाय वखान्यो । ऑखि ऑखि काँ किरकिरात नहिँ मैं हो जान्या ॥ ३११ ॥ पुनः होति दीठ के लगत आँख सौं आँसुन की झर। सुकवि पलक भभराइ उठत पुनि ताही औसर । पुतरी तिरमिर होत परत नहिँ कछु दरसान्यो । डीठ डीठ काँ किरकिरात नहिँ मैं हो जान्यो ॥ ३१२ ।। हरिछविजल जब तें परे तब तै छन निबरै न ।। भरत बरत बूड़त तरत रहत घरी लौं नैन । २५८ ॥ रहत घरी लै नैन ताहि पै अति चकराते । ऐंचे हू पै फेरि घुमि ता ही दिसि जाते ॥ झूलरहे हैं सुकाव प्रेम के फन्द माँहि परि । सूखत भगत उवलत दाउ दृग लाहि छबिजल हरि ॥ ३१३ ।।। अलि इन लोयन क कछु उपजी बड़ी बलाय ।। नीरभरे नितप्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाय ॥ २५९ ॥ तऊ न प्यास बुझाय रहत हैं मान सूखे । नेहचीकने तऊ लखत दस हैं दिस रूखे ॥ इन डीठिन को डीठि लगी हैं हाय जाउँ वलि । सुकवि व- ताउ उपाय वालंपन की प्यारी अलि ॥ ३१४ ।। . | प्यास बुझाय न क रहत सूखे से दोऊ । लरजत लालचभरे सरस | निरखत नहिं कोऊ ॥ सुकवि सदा घनस्याम हिँ पे ये ठमकत वलि बलि । में इन नैनन को हाय कहा ध भयो देखु अलि ॥ ३१५ ॥ ।