विहारविहार ।। इन दुखिया अँखियानि क सुख सिजो ही नाहिँ । देखें वनँ न देखते अनदेखे अकुलाहिँ ॥ २७० ॥
- अनदेखे अकुलाहिं हाय आँसू वरसावत । नेहभरे हू रूखे है अति जिय।
तरसावत ॥ सुकवि लखते हूँ पलक कलपसतसरिस सुहाइ न । प्रान जाई जो तोऊ दोऊ दृग को दुख जाइ न ।। ३२७ ॥ पुनः विन देखे अकुलाहिँ ललकि पुनि देखन चाहत । एक टकटकी वाँधि तृपित से अधिक उमाहत ॥ पलक परे पै कोटि कलप से वीतत हैं छिन । ३ विधि क्यों रचे निमेप सुकवि दुखियाँ अँखियाँ इन ॥ ३२८ । = - = = - = - = - -= को जानै व्हैहै कहा जग उपजी अति अगि। मन लागे नैननि लगे चले न मग लगलागि ॥ २७१ ॥ लागि चलत क्यों लगालगी के मग तु अली । जानत नहिँ व्रजमाहिँ अजव चाली है चालीः ।। अङ्ग अङ्ग दहकावति है निहँचै किन माने । सुकवि लगै जिहिं जानै सो दुजो को जानै ।। ३२६ ॥ - -= = = = =
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वनतन क निकसत लसत हँसते हँसत इत आय . दृगखंजन गहि लै गयो चितवनि चेप लगाय ॥ २७२॥ चितवनिचेप लगाइ जुलुफ के जाल फसायो । तिलककनककतरनी कतरि परकटा बनायो । टोपीपिंजरा माहिँ राखि लीनो है तजत न । अलि
- बहेलिया स्याम सुकवि हे या वृन्दावन ।। ३३० ॥
- • खान के बारे :: चलो में चार । ' इनतन की बन की भोर को ( तालुवन्ट्रका हरिप्रकाश )
। तत्र का भय र प्रभित्र है।