पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१७२

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विहारीविहार । । ६६ = = हरि हरि बरि वरि करि उठति करि करि थकी. उपाय ।। | वा को जर वलि वैद ज्यों तोरस जाय तो जाय ॥ २९९ ॥ । तोरस जाय तो जाय और रस अनरस लागे । तू चलि जो कर गहै तचै । जिय को भ्रम भागे । छाती चै कै देख होत कैसी हिय धरधरि । सुकवि नींद नहिं लगत चहकि वररावत हरि हरि ॥ ३५६ ॥ यह विनसत नग राखि कै जगत बड़ो जस लेहु । जरी विषम जर ज्याइयै आय सु दरसन देहु ॥ ३०० ॥ अयि सु दरसन देहु विपम जर अँग अँग व्याप्यो। गरम सुहाय न कळू

  • नाहिँ सीतल सुख थाप्यो । लोकनाथ वह मुखमृगाङ्क हित प्यारी तरसत ।

सुकवि स्याम मधु जोग देइ राखहु यह विनसत ॥ ३६० ॥ नेक न जानी परति य परयो विरह तन छाम । उठति दिया ल नदि हरि लिये तुम्हारो नाम ॥३०१॥ में नाम तुमारो एक रह्यो है वाकी असा । पुतरी चढ़ि गई भाल स्याम ।

  • भई सुख की भासा । लखे परत नहिँ साँस सुकवि गोपी तरसानी । जीयत ।

ध मरि गई परत कई नेक न जान ।। ३६१ ॥ | में ले दुयी लयो सु कर छुवत छनकि गौ नीरं । लाल तिहारो अरगजा उरे व्है लग्यो अबीर ॥ ३०२ ॥ उर व्हें लुग्यो अवीर सोऊ तेन ताप तपायो । देखते देखत स्याम स्याम ५ ईंग के हो यो ।। कछ धूम सी उटी फर सघ गयो सेत हो । राजत सुकवि । में विभूति मन दीनों जो में ले ॥ ३६२ ।। ॥ ॐ तो. का रा न लगना बरधर्म है। लोकनाथ श्री मृगा; वैद्यकशास्त्र में प्रमिद रस हैं।

  • जाम • यिन्लो, मधु = इद में एक पक्ष में मधु दन्त यही दोहा सुं० ४३३ में पिर पाया है।

|में र' इमरी कुन्निया है । यह पानाहो फ्रेम का टोप जान पड़ता है । = = == = =

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