पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१७३

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बिहारीबहार। हित कार तुम पठ्यो ल वा बिजना की बांय । .. : टरी तपनि तन की तऊ चली पसीना न्हायं ॥ ३०३ ॥ |. चली पसीना न्हाय पुलकि पैखादिस पेखत । कर लै चुमि चढ़ाय सीस इकटक पुनि देखत ॥ पुनि पुनि देइ सखीकर पुनि राखत लै हिय धरि ॥ सुकवि तमासा भयो लाल पठयो जो हित करि ॥ ३६३ ॥

  • हँसि उतारि हिय हैं दई तुम ज़ तेहीं दिन लाल ।

राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चिहुँटिनी माल ॥ ३०४ ।। | वहै चिहुँटिनी माल अहे छाती सौं लायें। तुम्हरे सेद लगे पट क चाहत

  • न धुआयें ॥ तुमकरदरकी कंचुकि ही मैं नैन रहे फैसि । सुकबि रटत पुनि-

पुनि उन बातन तुम जु कही हँसि ॥ ३६४ ॥ होमति सुख करि कामना तुमहिं मिलन की लाल। ज्वालमुखी सी जरति लखि लगनि अगनि की ज्वाल ॥३०५॥ लगनि अगनि की ज्वाल माल लहरति भभकाई । खुले केस लट परी धूम मानहु धधकाई ॥ चाहनुवा लै लाजघीउडारति तपवति सुख । सुकबि लखहु अंग समिध बनाये तिय होमति सुख ॥ ३६५ ॥ थिाकी जतन अनेक करि नेक न छाँड़ति गैल। | करी खरी दुबरी सुलगि तेरी चाह चुरेल ॥ ३०६ ॥ तेरी चाह चुरैल : परी पीछे बरजोरै । ननद जिठानिन के मन्त्रन हूँ हाय ।

  • * यह दोहा शृङ्गारसप्तशतिका में नहीं है। यह दोहा शृङ्गारसप्तशतिका में नहीं है।
  • : * बैंर के हुक्षपर चुडैल रहती है यह 'जनरवहै ऐसे ही चिता देख नाचना और मेरा हाले किसी
  • से कहै तो मै खाजांऊँगी यह कह डरानाभी प्रसिद्ध है यह भाव दूसरीकुण्डलिया के तृतीय चतुर्थ चरण के

में दिखलाया है। यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रंथ मैं नहीं है ॥ .::.:.:. :::