3434344444444444444444444444443 विहारविहार । न छेरै ॥ धूपलपट स बढ़त और दूनी दुति वाकी । करू सुकवि मैं कहा
- सवे जतनन करि थाकी ॥ ३६६ ॥ . .
। तेरी चाह चुरेल ताहि जनि जाइ चवाई । चिरह बैरवन विचार विचरि औरों वरिआई ॥ चित्तचिता सों जरत देखि निरतत गति बाँकी । कहि न । सकत कछु हाल सुकवि जतनन करि थाकी ॥ ३६७ ॥
- लाल तिहारे विरह की अगनि अनूप अपार ।।
सरसै बरसै नीर हूँ झर हू मिटै न झार ! ३०७ ॥ झर हू मिटे न झार वढत दूनी पुनि ज्वाला । दीरघ सँस झपट्टन साँ - भई अतिविकराला ॥ सुखी पाती डारि और सुलगाई प्यारे । सुकवि लखहु चलि हाही खाँऊ लाल तिहारे ॥ ३६८ ॥ जो वाके तन की दसा देख्यौ चाहत आप । तौ वलि नेक विलोकये चलि औचक चुपचाप ॥ ३०८ ॥ चलि औचक चुपचाप ओट तरु के है टाढ़े। लतावीच तें लखहु होइ जिय। के अति गाढे ॥ सुकाव धीरता गनिहाँ मैं तव तुमरे मन की । घरैहो नहिं लखत दसा जो वाके तन की ॥ ३६६ ।। लई सहि सा सुनन की तजि मुरलीधुनि आन । किये रहति नित राति दिन कानन लागे कान ।।३०९॥ | कानन लागे कान रहति कुलकानि विसारी । अलक हटाइ कपोलन श्रुति • या टोहा अनवरचन्द्रिका में नहीं है । पाती = पत्तो पयवा चि, भुवी = रम ररित । | 5 Y Yी ड्रारमती में है। है ६ : == । =