विहारीचहार ।। चाहगुन ऐचि घुरावति ॥ मुसुकनिमही पियाई सेद स अङ्ग अङ्ग भरि । माखन सो जिय लेइ गई तिय फेर कछु करि ॥३६.०॥
- देह लग्यो ढिग गेहपति तऊ नेह निरवारि ।।
ढीली अँखियन ही इतै गई कनखियन चाहि ॥ ३२० ।। गई कनखियन चाहि कपोलन कछु फरकावति । नासा मोरति मुसकिराति अमृत ढरकावति ॥ उकसति अँचर सम्हारति सारी सजति सुठि जऊ । सुकवि सँतोपति देह लग्यो ढिग गेहपात तऊ ॥ ३६१ ॥ | लिहि सने घर कर गह्यो दिखादिखी करि ईठि। गड़ी सुचित नाहीं करन कार ललचौहाँ दीठि ॥ ३२१ ।।
- : करि ललचाँहीं दीठि कळू जनु नासा मेरी । भौंह सिकोरी थारी तिरछे
- लखि कै गोरी ॥ पुनि कपोल फरकाइ कहा ध मन्द रही कहि । सुकवि ।
लिये दुने अनन्द तिय सूने घर लहि ॥ ३९२ ॥ . कालवृत दूती विना ज़रै न और उपाय ।। फिरि ताके टारे बनै पाके प्रेम लदाय ॥ ३२२ ॥ पाके प्रेम लदाय ढार पुनि वहकि ढरै ना। दोउ दिस रहत झुकाव बन्यो
- कछ है उझकै ना ॥ नाहिं लगन मैं चीच परत कछु झाक लहे का। कालवूत
को काम नहिं तव नकचि कहे का ॥ ३६३ ।।
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= == = = ॥ यह दो अनवरचन्द्रिका में नहीं हैं । ' यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रन्थ में नहीं है। | 4: मराय या गुम्मड बनाने के लिये नीचे भराव उनी दङ्ग का बना ऊपर महराय आदि बनाते हैं, एम भरार को कान्नदत कहते हैं ॥ हरिप्रमाद कदाचित् इनका मर्म नहीं समझे । उनने यों लिंग्वा | । ३ ।' ट्रोइारोयार्थिना न भवति हुनु फोऽपि यत्रोऽन्यः । पक्व प्रेमदारे हितं निम्मारगेन तयोः ।
- १५ का भी दी जाने ।