पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बिहारीबिहार ।। आनंद वरसावति ।। सारी सेत हु रँगी जात मानहुँ केसर सौं । सुकवि नेक चलि देखहु हरि वलि जात अहैं। हैं ॥ ४०६ ॥..

  • छनक छबीले लाल वह जौ लगि नहिँ बतराय ।।

' ऊष मयूख पियूष की तौ लागे भूष न जाये ॥३३६॥ | तौ लखि भूख न जाय साँच विनती सुन लीजै । तौ लगि ही पुनि काव्य सुधाचाखन चित दीजै ॥ मिसरी फिसरी जात कन्द भौ मन्द रसीले । सुकबि सुनहु चलि मधुर बाल वह छनक छबीले ॥ ४०७ ॥ ढोरी लाई सुनन की कहि गोरी मुसुंकात ।..:...। |... थोरी थोरी सकुच सौं भोरी भोरी बात ॥ ३३७॥. .. | भोरी भोरी बात सकुच सौं थोरी थोरी। घोरी मेनेहुँ मिठास मुलकि भाषत सुख मोरी ॥ चोरी राखत डीठ भाल मैं दीने रोरी । सुकबि रम्यौ मन वहै सुनने की लाई ढोरी ॥ ४०८ ॥ । । । नेकौ उहि न जुदी करी हरषि जु दी तुम माल । उर तै बास छुट्यो नहीं बास छुटे हू लाल ॥ ३३८ । । | वास छुटे हू लाल ब्रास उर कौ नहिँ छुट्यो। टूट्यो फंदा तऊ प्रेम वास नहिँ टुट्यो । उहिँ सूखे हैं सूख्यो नेह न कछू हिये को । सुकबि भई नीरस् तऊ बीरस भई ने नेको ॥ ४०८ ॥ .. । मोहि भरोसो शीझ हैं उझकि झाँकि इक बार। | रूप रिझावनहार वह ये नैना रिझवार ॥ ३३९ ॥ ये नैना रिझवार रहत छबि हित तरसाने । ॐनक झलक ही देखि होत

  • यह 'दोहा शृङ्गारसप्तशती में नहीं है ॥ * सुगन्ध जाती रही तो भी उसका. उर में निवास

| बना रहा ॥ $ यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रन्थ में नहीं है। ।