पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९२

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AAAAAAAAAA3344444444444443333333334 विहारविहार । | *खरी पातरी कान की, कौन बहाऊँ बानि । आककली न रली करै, अली अली जिय जानि ॥ ३६७ ॥ अली अली जिय जानि भली ही कली निहारै । आक कटेरी कनक सेमरन नाहैं उर धारै ॥ चटकभरी चम्पा हू की नहिँ करत खातरी । सुकवि न जानत अरी कान की खरीं पातरी ॥ ४४० ॥ तोरस राच्यौ आन बस, कह्यौ कुटिलमति कूर। । | जीभ निवौरी क्यों लगै, बौरी चाखि अँगूर ॥ ३६८ ॥ वरी चाखि अँगूर निवौरी काँ को चाहै । तोनैनन लखि नैन आन नहि

  • करत उछाहे ॥ कैसे चलिहै चित्त भयो है जो तेरे वस । सुकवि हिं नीरस

। लगत सवै राच्यो जो तोरस ॥ ४४१ ॥ . . . . . . . 2.3.44444444444444444444444444.4.4.4.42 | 5 गहली गरब न कीजिये, समै सुहागहिँ पाय ।। जिय की जीवनि जेठ सो, माह न छाँह सुहाय ।। ३६९ । । । । माह न छाँह सुहाय ठंढ कछु भली न लागै । ग्रीषम अगिन, रु सीत में विजन स सुख नहिँ पागे ॥ या स गरव विहाइ प्रेम स है चहपहली। सुक- । वि छाँडि यह बानि गाँठ गह ली सो गह ली ॥ ४४२ ।।


• कान की प्रति दुदली है, जो सुनै सो ही मान लेती है। तेरीं क्यों बहकने की बाभ है । तु के नियय कामक, भरा आक की कली से ( रली ) रति नहीं करता है। लहूलाल लिखते हैं । यह कौन

  • भय हे असे में यहाऊँ । यह दोहा हरिप्रसाद के अन्य में नहीं हैं ।

में यह डा हरिप्रमाद के अन्य में नहीं है । ः निरीनीम का फल । । के गए दोहा ४रिप्रमाद के ग्रन्थ में नहीं है । गहती = वीड़री राजपुतानी मैली' ।। त्रजभाषा में

  • * यह शब्द मिलता है जैसे प्रभित्र ४ोरी गोरी काहे तेरो आज वदन मैन । के तेरो गौन करत बाप
  • ** *री पथ निपट ' संस्कृत “अहिल'।