पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९५

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| बिहारविहार ।। लीजै सुरंग लगाय रँगीले ताकि निसानो । अजब मोरचा अहे आज यह साँची मानो ॥ पंचवान उत तुअ सहायता करि है त्यों हूँ।सुकाब मान की। अन तोरि रन जीतहु क्याँ हूँ ॥ ४५०॥ | सकत न तुव ताते बचन मोरस को रस खाय । छन छन औटे छीर ल खरौ सवादल होय ॥ ३७७॥ खरो सवादल होय सुकाबि अति गाढ़ो गाढ़ो। अति अनंद को कन्द ने- हमेय सवसुखबाढ़ो ॥ प्रीति सकें नाहिँ तोरि नैन तेरे अनखात । सुकविन का रस, नास सकत तुअ बैन न ताते ॥ ४५१ ॥ सकुचि न रहिये स्याम सुनि ये सतरौंहें बैन । देत रचौं हैं चित कहे नेहनचौहँ नैन ॥ ३७८ ॥ नेहनचहें नैन कपोलन पुलक समाई । रोम लखोः संगबगे अधर भई सुसुकलुनाई ॥ पटझटकन कम भई भौंह हू सधी लहिये । सुकब मनाओ एक बेर पुनि संकुचि न रहिये ॥ ४५२ ॥ . : :: : ::. आये आप भली करी मेटन मानमरोर। .. दूर करौ यह देखि हैं छला छिगुनियाँछोर ।। ३७९ ॥ छला छिगुनियाँछोर छुरावहु छैल छबीले । छली छिछोरे वैन छाँडि छन देहु रसीले ॥ पीकलीक हूँ नीक लगै नहिँ मुख अलसाये । सुकाब, छिपाओ ऐव मान जो मेटन आये ॥ ४५३ ॥ .. सीरे जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिनि तनुताप । बसिवे को ग्रीषमदिननि पयो परौसिनि पाप ॥ ३८० ॥