विष्टाचरित्र। ।
- छुटी न लिसुता की झलक झलक्यो जोवन अङ्ग ।
दीपति देह दुहुँन मिलि दिपति ताफता रङ्ग ॥” “संकुचि सरकि पिय निकट तें मुलकि कछुक तन तोरि । कर आँचर की ओट करि जमुहाँनी मुख मोरि ।।,,
- चाले की बातें चली सुनत सखिन की टोल । .
गोये हु लोचन हँसति विहँसति जात कपाल ।”
- रमन कह्यो हँसि रमनि स रति विपरीत विलास ।
चितई करि लोचन सतरे सगरव सलज सहास ।” इत्यादि ससुशः अपूर्व गुण होते भी विहारीजी ने न तो कहीं अपनी प्रशंसा की है और न अपने
- परितोषिकप्रद गुयाग्राही महाराज जवसाह की ही गहरी प्रशंसा की है। बहुत से कवियों की चाल
में है कि अपना जीवनचरित्र, कुल गोत्र, देश, काल, आदि सच्ची और उपयोगी बात लिखने की तो कया नहीं परन्तु अपनी प्रशंसा भर देते हैं जैसे केशव कवि ने लिखा है 'निःसारीयति सारिका पिककुलं रीयति व्याकुलं, हंसाली परमाकुलीयति शुकीमालापि मूकीयति । यामाकर्ण किला- धयति धरां सीधाधरी माधुरी सेयं पण्डितकेशवश्य विमला वाग्देवता द्योतते ॥” ऐसे ही जयदेव. जगन्नाथ कविराज, भवभूति, थीहर्ष प्रभृति महासहाकविवर ने अपनी प्रशंसा की है परन्तु कालिदास की भांति बिहारी जी ने अपनी प्रशंसा कुछ भी न की में हैं। इस कलङ्ग से तो बिहारी जी भी रहित । में नहीं हैं कि उनमें अपना इतिहास कुछ भी न सिग्डा जिस कारण यहा तक सन्देह उपस्थित हो गये कि बिहारी जी चौ३ घे कि नहीं और ब्रजवासी थे कि नहीं। | कविता के प्रधान फल तो रसोदयप्रयुक्त अपरिमितानन्ट् और भक्ति ज्ञान शिक्षादि हैं परन्तु यश । में भी प्रधान फल नहीं है जैसे प्रसिह है कि “जयन्ति ते सुशतिनो रससिद्धा: कवीश्वराः । नास्ति वेपो | य:काये जरामजन्मभः ॥” इनदिनों परियम करके बड़े अन्य बनाने वाले कवि तोय तथा अपनी मर्शमा के झूठे पोधे लिने वाले कवियों को धोड़े, जोड़े, तोड़े, हाथी की सवारी और जमीदारी देने ३ रजामहाराजा लोग यश ही के लिये लाल सुवाते हैं और उनका योग ही नहीं होने पाता है । हो के में ! हमलोग अपनी ही अज्ञों में अपने समीपवर्ती राजा महाराजाओं की उदारता ती दिन दिन दे रहे है । कोई कवि पहुंचे महाराज के नवमिज़ का वर्णन ऐसा किया कि यूसुफ के परदारे बना में दिया कि म कदि ने एक चयितदर्द का नायिकाभेद का कड़ा समर्पित किया जिसमें सव नायि
- *7 का दायक महाराज के को बनाया मृद रमों का इटाग्द महाराज ही परे म दिया अौर ।
म राज हैं। ६ ६ * मन्मा से अपनी कविता मरिता वलभन्ला दो, वम में ग्रन्थ को देख