पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२०१

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विहारीबिहार।

  • दुजोंधन लाँ: लाल डूब मोहीय विराजे । म अंग अंग बदरङ्ग भयो तुम

नव रँग साजे । नीलकमल से बिकसि रहे मुरझात नहीं पल ..। सुकबि प- -

  • रस नहिँ करत तुम्हें वह बिरहबिथाजल ॥ ४७३: ।।:::::::
  • अबला क्य, करि सहि सकै पावस कठिन जु पीर।

+ रक्तबीज + सम अवतरे ते ऊ धरत न धीर ॥ ३९९ ॥ ते ऊ धरत न धीर नारि नर साँ जो न्यारे । गनीर गगन अरु कानन हूँ कुल निरधारे ॥ बड़े बली गिरि हूँ झरना ऑसून रहे झरि । सुकवि कहो

  • सहि सकै पीर पुनि अचला क्य करि ॥ ४७४ ॥ .... .:
  • आनि इहाँ बिरहा धरयो स्यौ बिज़री जनु मेहः।::

। दृग जु बरत वरषत रहत. आठौं जाम अच्छह । ४०.० ।। + आठौं जाम अछेह बरत अरु वरसंत नैना। छाती चमकत-थरथरात सुनि परें न बैना ॥गरत न जंरत ने अङ्ग पाई घन आगिन पानी । सुकवि । वीजुरी जूहसहितं घन राख्यो आनी ॥ ४७५ ॥ ॥ करि सॉकर बरुनी सजल कौडा ऑसबूंद । दृग x मलंग डारे रहैं कीने बदनने मुंद ॥ ४०१ ।

  • यह सब ग्रन्थों में सोरठा है यहँ कुण्डलिया के लिये दोहे का आकार रखा है ॥ देवकीनन्दन,

टीका, हरिप्रसादकृत, अनुवाद, हरिप्रकाश और कृष्णदत्तकौ टीका मैं यह है ही नहीं ॥ . .. . रक्त और.बौज :: ::*.( जोवीर्यं .) के. सम होने से ज़िन का जन्म हुआ है अर्थात् नपुंसकः संस्कृत व्याकरण के अनुसार ये तीनों भो नपुंसक हैं ॥ ३ : ६.यह संवग्रन्थों में सोरठे के कार में मिलता है पर कुण्डलिया के लिये उलट के दोहे के आकार में रख लिया है ।” कृष्णदत्त कविने तो इमे लिखा ही नहीं है विहारोहोजी जाने कि 'सौ' नक़हस्य क्यों कहा !!... " | बनने का धर्म चमकना है और वरसने का धर्म घरघराना है। वलता है इस लिये गलता नहीं ।

  • और बरसता है इस लिये जलता नहीं ॥ :: :: यहूं अन्य ग्रन्थों में सोरठा है। येही कुण्डलिया ।
  • के लिये दोहा रक्खा हैं । ४ मलङ्ग = फकीर। :::::::::::::::::::: :::::::

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