पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२०६

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पुनः विहाराविहार ।। १२३ की विधि करि डारी ॥ जमुना अरु व्रज तज्यो नाहिँ कत हूँ जिय लागते । सुकवि तऊ हरि हिय स हदत न सोवत जागत ॥ ४९२ ॥ विसरे हू विसरे न कढ़े नहिँ जीय अभागो । भूत हु साँ वढि नन्दपूत में यह मोक लागो ॥ देह दूवरी भई कटै निस दिन ही रोवत । सुकवि हटै । नहिँ हिय स कारो जागत सोवत ।। ४९३ ॥ पुनः । विसरै नहिँ मैं कितिक मन हिँ इत उत हिँ डुलावत । तउ समुहैं वह हँसत मनहुँ कुण्डलन झुलावत । जोगीजन के जिय हू ताजे जो छन छन भागत । सुकवि हाय सो गैल परयो मम सोवत जागत ॥ ४६४ ॥ | बिसरे हू विसरै न विसरिवे स्याम तज्यो सब । कारी सारी कालिन्दी । अञ्जन न झुअत अव ॥ घन तमाल मसी लखिये हु न मोहिय पागत ।। सुकचि स्याम त छाँडत नहिँ माहि सोवत जागत ॥ ४६५ ।। | शृकुटी मटकनि पीतपट चटक लटकती चाल । चल चख चितवनि चोरि चित लियो विहारीलाल ॥ ४१४ ।। लियो बिहारीलाल चित्त पलटावत नाहीं । सुनो सो जिय भयो कहूँ कछु । भावत नाहीं ॥ सुकवि दियो निरदई दुःख हँस हँस के कपटनि । को । जानत हो हरि है हिय हरि भृकुटीमटकाने ।। ४६६ ।। | और भॉति ॐ भये व ये चौसर चंदन चंद । पतिविन अति पारत विपति मारत मारुत मंद ।। ४१५।। मारत मारुत मन्द सुगंधित सुन्दर सीतल । कोकिलकुहुककलाप कुर कसि २ भदेव ६• भये सब दे। ऐमेह य के प्रकार का लोप विहारी जी ने और भी कई स्थानों में

  • क्रिया है में दीक 5६३ ‘धि भइ न ब दुरौ भये ।